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बीकानेर,श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. का चातुर्मास बागड़ी मोहल्ला स्थित सेठ धनराज ढ़ढ्ढा की कोटड़ी में चल रहा है। रविवार को अपने नित्य प्रवचन में आचार्य श्री ने साता वेदनीय कर्म के पन्द्रह बोलों में से नौंवा बोल भक्ति करता जीव साता वेदनीय कर्म का बंध करता है विषय पर व्याख्यान दिया। उन्होंने बताया कि दृष्टि तीन प्रकार की होती है। पहली भय मुक्त, दूसरी भ्रम मुक्त और तीसरी दुर्भाव मुक्त दृष्टि होती है। इन तीनों दृष्टि से मुक्त परमात्मा की भक्ति करता है। आचार्य श्री ने बताया कि जो परमात्मा की भक्ति करता है, उसकी भक्ति निष्फल नहीं जाती, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसौं, कभी ना कभी परिणाम जरूर लाती है। भक्ति का ही एक रूप जप करना है। आचार्य श्री ने फरमाया कि तप हर कोई नहीं कर सकता। बहुत से लोग दुनिया में तप नहीं कर सकते लेकिन तप का अनुमोदन कर सकते हैं। तप केवल एक प्रकार का नहीं होता, भूखा रहना ही तप नहीं होता, भूख से थोड़ा कम खाना भी तप है, इससे भूख की समस्या का समाधान भी हो जाता है। महाराज साहब ने कहा कि  परिणामों पर दृष्टि करें तो भय से संसार घिरा है। भय से लोग आक्रांत रहते हैं। परमात्मा की भक्ति करने वाले ही जीवन में निर्भय बनते हैं। परमात्मा की भक्ति का पहला  परिणाम ही भय से मुक्ति है। जो भक्ति करता है और फिर भी भयभीत रहता है, इसका मतलब यह है कि वह भक्ति अंतर्मन से नहीं कर रहा है।

दुख में सुख का अनुभव ही साधना
आचार्य श्री ने कहा कि दुख में सुख का अनुभव करना और प्रतिकूलता में अनुकूलता का अनुभव करना ही साधना है। आवश्यकताओं का सीमांकन करना, इच्छाओं पर नियंत्रण करना भी तप का एक प्रकार  है। आचार्य श्री ने कहा कि बंधुओ, तप का एक प्रकार हम जीवन में अंगीकार कर सकते हैं। रोजाना कुछ ना कुछ संकल्प करने से, कुछ नहीं तो इन्द्रियों पर, वृत्तियों पर नियंत्रण करने से हम सहज ही तप कर सकते हैं। लेकिन अधिकांश लोगों का तप तो छोड़ो जप में भी मन नहीं लगता। जप समय मांगता है। निरन्तरता मांगता है। हम सोचते हैं, मन लगे तो जप करें, बंधुओं मन कभी नहीं लगता, आप तो संसारी हैं, मन साधकों का भी नहीं लगता, लेकिन बार-बार साधना करने से मन को भक्ति में स्थिर करने से साधक साधना करता है। महाराज साहब ने कहा कि मन तो चंचल होता है, यह बच्चों की तरह होता है।
जीवन में दुर्भाव मत रखो
आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने कहा कि व्यक्ति के जीवन में दुर्भाव बहुत होते हैं। हम दुर्भाव से जकड़े रहते हैं। हमें दुर्भाव से दूर रहना चाहिए। अगर कोई हमसे दुर्भाव रखता है तो हमें यह मान लेना चाहिए कि जरूर हमसे कोई गलती हुई है। इसका ही परिणाम है कि कोई क्रिया की प्रतिक्रिया दे रहा है। यह हम स्वीकार कर लेते हैं तो हम स्वयं दुर्भाव से बच जाते हैं।
दुख की हाजिरी लेना बंद करो
आचार्य श्री ने कहा कि दुख से मुक्त होना है तो दुख की हाजिरी लेना बंद कर दो, हम दुख की हाजिरी लेते हैं तो दुख मजबूत होता है। हम दुख की चर्चा करके इसे बढ़ाते रहते हैं। इससे यह ताकतवर बनता है। हम सुख- संतोष, शांति बाहर ढूंढ़ते रहते हैं, वह बाहर नहीं मिलती, वह तो हमारे अंदर है लेकिन हम दुखों में इतना डूब जाते हैं कि मन की शांति का अनुभव करना भी भूल जाते हैं। महाराज साहब ने बताया कि दुर्भाव मुक्त दृष्टि जप से प्राप्त होती है। जप करो, आपके दुर्भाव सदभाव में बदल जाएंगे।
प्रवचन से पूर्व नित्य भजन की श्रृंखला में आचार्य श्री ने भजन ध्यान लगा प्रभु चरणों में बंदे, यह जीवन दिन चार है, गया श्वास पुन: ना आएगा, इसका ना ऐतबार है,काल अनादि से भटका तू, दुर्लभ नर तन पाया है, समय सुनहरा हाथ लगा पर, क्या- क्या लाभ कमाया है का गान कर इसके भावार्थ बताए।
श्रावक-श्राविकाओं को दिया आशीर्वाद
श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के अध्यक्ष विजयकुमार लोढ़ा ने बताया कि रविवार को प्रोफेसर सुमेरचंद जैन ने अहिंसा दिवस पर जैन धर्म में अहिंसा का महत्व बताया और हिंसा से वैश्विक स्तर पर होने वाले नुकसान से धर्मसभा को अवगत कराया। आचार्य विजयराज जी महाराज ने भी जैन धर्म और अहिंसा दिवस को एक दूसरे का पूरक बताया। उन्होंने कहा कि भगवान महावीर के सिद्धान्त को आज के दिन संयुक्त राष्ट्र संघ ने अहिंसा दिवस घोषित कर प्रतिपादित किया है। महात्मा गांधी ने भी भगवान महावीर के सिद्धान्तों को अपनाकर अहिंसा का मार्ग अपनाया था।

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