बीकानेर शहर के आस पास 45 हजार बीघा गोचर चारागाह है। इसकी सुरक्षा और विकास के लिए जनता आवाज उठाती रही है। पत्रकार शुभु पटवा ने तो भीनासर गोचर आंदोलन वर्षों तक चलाया। उसकी आवाज पूरे देश में गूंजी। वे गोचर आंदोलन के हीरो रहे। नारायण जी माली, पूनम जी कुम्हार और उनकी टीम ने गोचर जागृति का वर्षों तक मशाल जुलूस निकाला। अभी वो मशाल दुगुनी लो के साथ प्रज्वलित है। मशाल देवी सिंह भाटी ने थाम रखी है। सरेह नथानिया गोचर के बृजू महाराज, मन्नू बाबू,सुजानदेसर के बंशी तंवर, भीनासर के युवा टीम इस मशाल के साथ गोचर की सार संभाल कर रहे है। इस मशाल की लो के उजास में भाटी कहते हैं कि गोचर हमारी परंपरागत सामाजिक आर्थिक व्यवस्था का प्रतीक रही है। गांव की समग्र व्यवस्था शून्य अर्थव्यवस्था पर आधारित रही है। पेयजल के लिए गांव के लोग ही वर्षा जल का स्त्रोत तालाब खुद मिलकर खोद लेते और पेयजल के लिए गांव स्वावलंबी रहता। गोधन की चराई कहां हो तो गाय के लिए गोचर, अन्य पशु ऊंट भेड़ बकरी के लिए ओरण छोड़ दी जाती। यह स्थाई चरागाह की व्यवस्था की परंपरा रही है। गोचर ओरण छोड़ने और संरक्षित रखने का इतिहास और परंपरा पीढ़ियों से रही है। आजादी के बाद सामाजिक व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गई चाबी सरकार के हाथ में आ गई। व्यवस्थाओं पर समाज का नियंत्रण नहीं रहा। समाज कमजोर हो गया। गोचर सुरक्षा और विकास को लेकर बहुत बाधाएं आ रही है सुनवाई करने वाला कोई नहीं है। गोचर ओरण पर अतिक्रमण और नाजायज काश्त हो रही है। ऐसी भूमि को मुक्त कोन करवाए? समाज के लोग आगे आएं तो कोई बात बन सकती है। सरकार के भरोसे हालत खराब है। जैसलमेर में 1 लाख 8 हजार बीघा ओरण पर अतिक्रमण हो गया। समाज ने पहल की तो कब्जे हटे।
भाटी का विश्वास है कि समाज आगे आए तभी कब्जे हट सकते है। समाज की जागृति के अलावा कोई कुछ नहीं कर सकता। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश है की बहाव क्षेत्र आदि की भूमि 1947 के स्थिति में लाएं। अब इसे लागू कोन करें। मास्टर प्लान, हरित पट्टी (ग्रीन बेल्ट) खत्म हो रहे हैं। सरकार की नीतियां वोट बैंक और कुर्सी से जुड़ी है। ऐसे में समाज का दवाब ही एक मात्र रास्ता बचा है। हमने गोचर की चार दिवारी बनाई। काम शुरू किया स्वत:स्फूर्त रूप से होता चला गया। समाज के दवाब से सरकारें और व्यवस्था झुक जाती है। नीतियां वोटों और सत्ता से जोड़ दी गई है। वोट केंद्रित नीतियों के कारण ग्रीन बेल्ट और मास्टर प्लान विफल हो गए हैं। वोट और कुर्सी के हिसाब से ही नीतियां बनाई जाती है। रेवड़ियां बांटने की राजनीति चलती है। कब्जे कर लिए तो सरकार पट्टे दे देगी। ऐसी नीतियों के क्या मायने है। गोचर भूमि अपने आप में प्रकृतिक चक्र है। ये असल में तो प्राकृतिक वनस्पति,जैव विविधता की संरक्षण स्थली है। गोचर शहर से सटी होने से लोगों की नजरें इस जमीन पर रही है। दीवार हो जाने से अब कब्जे नहीं होंगे। अब तक 13 किलोमीटर दीवार बन गई है। एक किलोमीटर की लागत 20 लाख रूपए आई। 40 किलोमीटर की दीवार बननी है। 25 _25 बीघा के सेवन घास के ब्लाक बनाए हैं। तीन तालाब खुदाए गए हैं।गोचर और गाय आज भी हमारे जीवन का आधार है विकास के यह वास्तविक मॉडल है। बस समझ का फेर है।