बीकानेर। श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि पर्वाधिराज पर्युषण पर्व का गुरुवार को दूसरा दिन है। यह आत्म चिंतन, आत्म अवलोकन का दिन है। यह अवलोकन और चिंतन- मनन वही कर सकता है जो नव तत्व की जानकारी रखता है। इन आठ दिनों के पर्व में हमें अपना आत्म चिंतन करना है कि मेरा क्रोध, लोभ, काम, मोह घट रहा है या बढ़ रहा है। अगर घट रहा है तो जीवन सार्थक हो रहा है और अगर बढ़ा रहे तो समझना कि मैं जीवन को निष्फल कर रहा हूं। यह सद्विचार व्यक्त करते हुए आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने क्रोध आने के कारण और उसके निवारण पर जिनवाणी के माध्यम से श्रावक-श्राविकाओं को अवगत कराया।
महाराज साहब ने क्रोध विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए बताया कि क्रोध के छह कारण होते हैं। इच्छापूर्ति की बाधा, मन का चाहा ना होना, शारीरिक दुर्बलता, मानसिक अस्त-व्यस्तता, तामसिक भोजन और वात-पित्त- कफ यह छह कारण है। इनकी विस्तारपूर्वक व्याख्या करते हुए बताया कि इन कारणों में पहला कारण इच्छापूर्ति में बाधा है। मनुष्य हमेशा किसी ना किसी प्रकार की इच्छा रखता है। लेकिन इच्छाओं का कोई अंत नहीं होता और कार्यशक्ति सीमित होती है तथा पुण्य शक्ति इससे भी कम होती है। संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिसकी सभी इच्छाएं पूर्ण हो जाए। महाराज साहब ने लंकापति रावण का उदाहरण देते हुए बताया कि रावण की भी पांच इच्छाएं थी जो अधुरी रह गई। यह इच्छाएं थी नरक के द्वार बंद कर दूं, शुक्ल पक्ष को ही हटा दूं, स्वर्ण में सुगंध हो ऐसा सोना पैदा करुं और स्वर्ग तक सोने की सीढिय़ां लगा दूं। लेकिन ऐसा नहीं कर सका, जिनकी इच्छाएं पूरी हो जाए वह भाग्यशाली और पुण्यशाली होता है। इच्छापूर्ति की बाधा से ही क्रोध उत्पन्न होता है। हमें क्रोध का दास नहीं बनना है, यह विकृति और विकार है, यह आत्मा में नहीं रहना चाहिए। क्रोध संत को सांप बना देता है और सांप को संत बना देता है। इसका सुंदर शब्द चित्रण महाराज साहब ने चण्ड कौशिक सर्प और भगवान महावीर के प्रसंग के माध्यम से विस्तारपूर्वक समझाया।
दूसरा कारण मन चाहा ना होना बताते हुए महाराज साहब ने कहा कि हम जो चाहते हैं वो होता नहीं है, जो होता है हमें भाता नहीं है, जो भाता है वो रहता नहीं है, यह जीवन की विडंबना है। हमें थोड़ा धैर्य, साहस रखना चाहिए, जब आदमी को क्रोध आता है, वह अधीर हो जाता है। अधीरता व्यक्ति के लिए ठीक नहीं रहती। सहन शक्ति कमजोर हो जाती है।वह अनर्थ से गुजर जाता है। मजा सहने में है लेकिन लोग सामना करने में समझदारी समझते हैं।
तीसरा कारण शारीरिक दुर्बलता है। शरीर में ताकत है, रस है तो वह तकलीफों का सामना कर सकता है। शरीर में दुर्बलता है तो वह आवेश को जन्म देती है।
चौथा कारण मानसिक अस्त-व्यस्तता है। इसमें मन स्थिर नहीं रहता, मन चंचल होता है। यह अस्त-व्यस्तता व्यक्ति को आवेश में ले जाती है।
पांचवा कारण तामसिक भोजन है। जंक फूड, फास्ट फूड, हमारे अंदर उत्तेजना पैदा करता है। तेलीय पदार्थ हमारे शरीर में उत्तेजना पैदा करने का काम करते हैं। इसके प्रभाव में आदमी अनर्थ करता है। यह मनुष्य में विकृति पैदा करती है।
छठा कारण है वात-पित्त और कफ, यह जब बढ़ता है तब स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। जब यह संतुलित रहते हैं, आदमी शांत रहता है। क्रोध के इन कारणों पर विजय पाने के लिए, शांति के लिए ही हमारा पर्युषण पर्व मनाया जाता है।
चार शरणों का सामूहिक संगान हुआ
श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के अध्यक्ष विजय कुमार लोढ़ा ने बताया कि आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने धर्मसभा में उपस्थित सभी साधु- महासती एवं श्रावक- श्राविकाओं से एक सुर में, स्वर में, एक लय और एक ताल में चार शरणों का सामूहिक गान प्रवचन विराम से पूर्व कराया। इस दौरान पूरा पंडाल श्रावक-श्राविकाओं से भरा रहा। महाराज साहब ने बताया कि इससे वातावरण में शुद्धी और मन में समृद्धी आती है। इससे शुद्धी, शक्ति, शांति की प्राप्ती मिलती है।
भजनों की बही सरिता
‘ओ मतवाले, प्रभु के गुण गा ले, तू अपनी जुबान से, तुझको जाना ही पड़ेगा, इस जहान से, भूल गया जो तूने वादा किया था, गाउंगा गुण गाउंगा, भ1ित करुंगा तेरी सांझ सवेरे, ध्याउंगा तुझे ध्याउंगा, अपना वादा तू है भूला’ और मारवाड़ी भजन मिनखा रो मन छोटो होइग्यो, चिंतन सारो खोटो होइग्यो, पर्युषण री छाई है बहार ढ़ढ्ढा री कोटड़ी में का गान हुआ।