बीकानेर,मोह और प्रेम ये भावनात्मक जीवन के दो छोर हैं। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। प्रेम हमारे सद्गुणों का विधायक है और मोह हमारे सद्गुणों का विनाशक है। साता वेदनीय कर्म के पांचवे बंध शील का पालन विषय पर श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने यह सद् विचार श्रावक- श्राविकाओं के समक्ष रखे। आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब का चातुर्मास सेठ धनराज ढ़ढ्ढा की कोटड़ी में चल रहा है। जहां, सोमवार को नित्य प्रवचन के दौरान आचार्य श्री ने कहा कि प्रेम से अनुराग करना चाहिए और मोह का त्याग करना चाहिए। जिसके जीवन में जितना प्रेम बढ़ता है, उसके जीवन में उतनी ही आत्मियता बढ़ती है। मोह व्यक्ति को संकीर्ण बनाता है। मोह का सर्वाकार प्रेम है। ज्ञानीजन कहते हैं कि अगर सुखी होना है तो मोह का त्याग करो। भगवान कहते हैं कि प्रेम का विस्तार करो। इससे सुख- शांति का विस्तार होता है। मोह का बढऩा शांति और सुख को घटाना है। मोह का विकृत रूप वासना है। वासना व्यक्ति को कमजोर और कायर बनाती है। वासना का दास व्याधि को प्राप्त करता है। यह समाधी से भी कौसों दूर ले जाती है और सुख-शांति की प्राप्ति भी नहीं होती है। एक क्षण भर का काम का सुख हमें बहुत समय तक दूख की खाई खोद देते हैं। ज्ञानीजन कहते हैं वासना काम- भोग की खाई है। इससे वही बाहर निकल सकता है, जिसका संकल्प मजबूत होता है। वहीं वासना का पालन करने वाला शील को प्राप्त नहीं कर सकता, वह वासना का दास बन जाता है। साधकों की वासना दासी होती है और जो वासना की गुलामी करता है, वह वासना का दास हो जाता है।
साधना से मिलती वासना पर विजय
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने श्रावक-श्राविकाओं से कहा कि वे साधना करें, साधना के बगैर वासना को नहीं जीता जा सकता। साधना करने वाले सामायिक करते हैं। जो श्रावक-श्राविकाऐं एक समय की सामायिक भी करती हैं, वह भी एक बड़ी साधना तो हो ही जाती है।
महाराज साहब ने कहा जवानी में आदमी सब कुछ कर सकता है। लेकिन जवानी में व्यक्ति को धन कमाने से ही फुर्सत नहीं मिलती। वह धन की लालसा में कहां- कहां चला जाता है। युवा पीढ़ी की मानसिकता तो यह होती है कि अभी तो बहुत प्राप्त करना है। युवाओं की यह लालसा और मानसिकता बन गई है कि जल्दी से जल्दी पैसा, ज्यादा से ज्यादा और किसी भी जरिए से बस पैसा आना चाहिए। यह मानसिकता बहुत बड़ी वासना है। यह याद रखने योग्य है कि धन की सैंकड़ो, हजारों, लाखों पेटी भर जाए तो भी संतोष नहीं मिलता। संतोष तो लाना पड़ता है।
अपने भाग्य पर भरोसा करो
आचार्य श्री ने कहा कि अपने भाग्य पर भरोसा करो, जिसे अपने पुण्यार्थ पर भरोसा होता है, वो संतोषी हो जाता है, कहा भी गया है कि संतोषी सदा सुखी। जीवन में जिस दिन आपने प्राप्त को पर्याप्त मान लिया, आपके जीवन में संतोष आ जाएगा। लेकिन धर्म की कमाई के लिए वह बुढ़ापे को लगाता है। आचार्य श्री ने कहा बंधुओं बुढ़ापे में धर्म-ध्यान नहीं हो सकता, बुढ़ापा तो आराम करता है।
जीवन का लक्ष्य मोक्ष
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि वासना पर विजय के बगैर साधना नहीं हो सकती, हमारा लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। लेकिन मोक्ष की प्राप्ती ना माला फेरने से होती है और ना ही बातों से होती है। मोक्ष तो वासना की मुक्ति से मिलता है। लेकिन मनुष्य वासना के पीछे पड़ा रहता है। मोह-वासना का दास तो अपमान भी सह लेता है।
स्वर्ग का द्वार बहुत छोटा
आचार्य श्री ने बताया कि आप धर्म और संघ के लिए कुछ करते हैं तो आपका नाम होता है। आप जो भी करते हैं वह ऊपर वाले के खाते में लिखा जाता है। यह ध्यान रखो कि स्वर्ग की छत बहुत बड़ी है, पर उसका द्वार बहुत छोटा है। साधारण आदमी का प्रवेश तो वर्जित है, स्वर्ग का कारण भी शील होता है और शील का पालन आप भी कर सकते हैं। यह जरूरी नहीं कि आप साधु बनो, लेकिन साधु ना बन सको तो ब्रह्मचारी बनो, मोह वासना से मुक्त रहो। महाराज साहब ने फरमाया कि धन हमारा रक्षक नहीं होता, हमारा रक्षक तो धर्म है। सदाचार और शील सदा आपकी रक्षा करते हैं, अगर आप सच्चे हैं तो सच्चाई आपकी रक्षा करती है। इसलिए अपने आप पर नियंत्रण रखो। प्रवचन आरंभ से एवं विराम से पूर्व आचार्य श्री ने प्रिय भजन ‘शांति से जीवन जियो संसार में, शांति मिल सकती है सच्चे प्यार में, शांति बिना वैभव नहीं है काम का, सच्ची शांति चाहिए परिवार में, शांति मिल सकती है सच्चे प्यार में…’ गाकर भजन के भावार्थ बताए। साथ ही शील और सदाचार को लेकर नेपोलियन का एक प्रसंग भी सुनाया।