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बीकानेर। महापुरुषों ने फरमाया है कि सत्य के पांच लक्षण  हैं। पहला मन में हो वैसा ही बोलना चाहिए, दूसरा बोले अनुसार करना चाहिए, तीसरा प्रतिष्ठा की लालसा नहीं रखनी चाहिए, चौथा अहंकार ना रखना और पांचवा  प्रकृति को काबू में रखना चाहिए। हमें चिंतन करना है कि इनमें से कौनसा लक्षण हमारे अंदर पाया जाता है और कौनसा नहीं। यह उद्गार श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने व्यक्त किए। मंगलवार को सेठ धनराज ढ़ढ्ढा की कोटड़ी में चल रहे नित्य प्रवचन के दौरान महाराज साहब ने सत्य को धारण करने, आत्मसात करने पर अपना व्याख्यान देते हुए कहा कि मैं देखता हूं कि लोग सत्य के इन पांच लक्षणों में से एक लक्षण भी धारण नहीं करते हैं। इसके अभाव में वे साता वेदनीय कर्म का बंध नहीं कर पाते हैं। आचार्य श्री ने कहा कि सत्य को धारण करना सबसे कठिन कार्य है। जिस प्रकार बालू के कणों को चाहे जितना भी पीस लो, उसमें से तेल नहीं निकाला जा सकता, तेल तो तिलों से ही निकलता है। ठीक वैसे ही आप करते तो पाप कर्म हैं और कामना साता की चाहते हैं तो यह संभव नहीं है।  इसके लिए तो सत्य का साथ करना ही पड़ता है। आचार्य श्री ने कहा कि मनुष्य को सच्चाई रखनी चाहिए, सच्चाई को अच्छाई और अच्छाई को सच्चाई, दोनों एक दूसरे को गुणवता प्रदान करते हैं। सच्चाई में जीने वाला सदा अच्छा ही बोलेगा, अच्छा ही सोचेगा और किसी का अच्छा ही करेगा। लेकिन लोग अपनी कथनी और करनी में अंतर रखते हैं। उनके मन में कुछ होता है और वचन से कुछ ओर होते हैं। ऐसे लोग अनाचारी होते हैं। महाराज साहब ने कहा कि हमें अनाचारी होने से बचना चाहिए। आचार्य श्री ने कहा कि सत्य सरल होता है, जो सरल होता है वह सज्जन होता है और जो सज्जन होता है वह साधु होता है। जिसके जीवन में साधुता होती है, वह सत्य के मार्ग पर चलता है। दूसरे लक्षण बोले अनुसार करना की व्याख्या करते हुए बताया कि जो बोला है, उसे अपने आचरण अनुसार करना चाहिए। जैसे अगर आपने दान करने के लिए कुछ बोल दिया है और फिर अब नहीं कर रहे हैं। इसका मतलब है कि आपके मन में खोट है और खोट के साथ सच्चाई नहीं चलती है। व्यक्ति को वाणी का वफादार होना चाहिए। तीसरा प्रतिष्ठा व्यक्ति को झूठ, छल-कपट,  दिखावे की ओर ले जाती है। व्यक्ति को प्रतिष्ठा कृतित्व से मिलती है,उसके पीछे भागने से नहीं मिलती। कुछ लोग स्वयं की प्रशंषा करते हैं, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि प्रतिष्ठा स्वयं की प्रशंषा से नहीं अपितु दुनिया करे तब मिलती है। जो सत्य में जीता है उसे प्रतिष्ठा की लालसा नहीं रहती। महाराज साहब ने कहा कि अहंकार मत रखो, यह हमें सत्य से कोसों दूर छोड़ देता है। जो व्यक्ति कर्तापन का अहंकार नहीं करता है, उसकी दुनिया प्रशंषा करती है।

महाराज साहब ने सत्य से मिलने वाली प्रतिष्ठा का प्रसंग गंगू ब्राह्मण और पठान के माध्यम से बताते हुए कहा कि एक नगर में गंगू ब्राह्मण रहता था। उसके पास बहुत सी खेती योग्य जमीन थी। वहीं उसके पड़ौसी पठान के पास गुजर बसर का कोई साधन ना था। एक दिन गंगू ब्राह्मण के मन में आया कि वे इतनी ज्यादा जमीन का क्या करेगा, इसे पुण्य कर्म में लगाते हुए उसने अपनी जमीन का एक बड़ा हिस्सा पठान को दे दिया। पठान ने उस पर खेती शुरू की और खेत खुदाई करने लगा। इस दौरान उसे खेत में एक घड़ा मिला जो स्वर्ण रत्न से भरा था। पठान उस घड़े को लेकर गंगू के पास गया और बोला, आपने जो खेत दिया उसमें यह घड़ा मुझे मिला है, इसे स्वीकार करें। गंगू ने यह कहते हुए लेने से मना कर दिया कि वह खेत पठान को दे चुका, अब इसपर अधिकार पठान का है। उन दोनों से मामला सुलझा नहीं और वे राजा के पास पहुंचे और पूरी बात बताकर पठान ने कहा कि महाराज यह धन लेना नहीं चाहते और मैं यह रखूंगा नहीं, इसे आप अपने राजकोष में जमा करें। राजा ने दोनों की ईमानदारी देख खूब प्रशंषा की और धन राजकोष में जमा कर लिया। पूरे नगर में उनके ईमानदारी की चर्चा हो गई। राजा ने प्रसन्न होकर गंगू ब्राह्मण से कहा कि मेरे दरबार में आप जैसे ईमानदार दिवान की आवश्यकता है। आप उचित समझें तो पद स्वीकार करें। ब्राह्मण ने कहा जैसे आप उचित समझें, वहीं राजा ने पठान से आग्रह किया कि वे योग्य और ईमानदार है, क्यों ना सेनापति का पद आपको दिया जाए। पठान ने भी स्वीकार कर लिया। इस प्रकार पूरे नगर ने राजा के न्यायप्रियता की और दोनों के ईमानदारी की प्रशंषा की। महाराज साहब ने कहा कि मैं कहना चाहता हूं कि जो सत्य के मार्ग पर चलता है, उसकी प्रशंषा सभी करते हैं। इसलिए सत्य का संग करो। राग का संग नहीं, राग हमें छोटा करता है और त्याग हमें बड़ा बना देता है। अगर हम अनित्यता और नित्यता का चिंतन करते हैं, हम अपने आप को सत्य में स्थापित कर लेते हैं।
महाराज साहब ने एक अन्य प्रसंग के माध्यम से बताया कि सत्य को सहना और कहना साहस के बगैर संभव नहीं है। एक नगर के राजा ने एक भव्य महल बनाया, सोचा इसका मुहूर्त किसी ज्ञानीजन से करवाएंगे। इस प्रकार एक महात्मा से उन्होंने महल का मुहूर्त करवाया। इस मौके पर हजारों लोग भोज कर रहे थे। राजा ने महात्मा को महल दिखाते हुए कहा महात्मा जी इसमें कोई कमी है तो बताइये। महात्मा तो सत्य के उपासक होते हैं, उन्होंने कहा राजन आपने पूछा है तो बता देता हूं, महल बहुत ही सुन्दर बना है। लेकिन इसमें दो कमियां है। राजा ने पूछा महात्मा जी बताइये। इस पर महात्मा ने कहा एक यह कि जिसने महल बनाया है, वह एक ना एक दिन जाएगा और दूसरी कमी है जो महल बना है, एक ना एक दिन ढ़ह जाएगा। महात्मा ने कहा राजन दुनिया में सब क्षणभंगुर है, इसका विनाश निश्चित है, इनसे क्या लगाव करना। राजा ने जैसे ही यह सुना कहा महात्मा ने कितनी बड़ी बात कह दी है, उसे सत्य का बोध हो गया। कहते हैं कि वह उसी वक्त  सब कुछ छोडक़र महात्मा के साथ सत्य की साधना में   निकल पड़े।
आचार्य श्री ने कहा कि श्रावक-श्राविकाओं के पांच अणुव्रत हैं। साधु-साध्वियों के पांच महाव्रत हैं। हम सब साधक हैं, आप और हम सब समान है। लेकिन हमारा और आपका परिवेश अलग है, साधु- संतों को लोभ लालच नहीं है। इसलिए हम संपूर्ण सत्य के साधक हैं। अगर आप श्रावक लोभ-लालच छोड़ दें तो आप भी सत्य के साधक बन सकते हैं।
विधायक राजवी का किया सम्मान
1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब के दर्शनार्थ एवं जिनवाणी का श्रवण करने वालों का क्रम निरन्तर चल रहा है। श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के अध्यक्ष विजयकुमार लोढ़ा ने बताया कि मंगलवार को विधाधरनगर जयपुर से विधायक नरपतसिंह राजवी, जयपुर राजघराने के राजगुरु अखिलेश जी महाराज, भंवरसिंह राजपूत ने प्रवचन सभा में पहुंच महाराज साहब का आशीर्वाद लिया एवं उनके मुखारविन्द से जिनवाणी का श्रवण किया। संघ की ओर से अतिथियों को माला पहनाकर, शॉल ओढाकर एवं स्मृति स्वरूप भेंट देकर सम्मान किया गया।

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