बीकानेर,देशभर में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है. गांधी के आदर्शों को अपनाने की बात की जा रही है, लेकिन इस बीच गांधी की खादी के कलाकार मुफलिसी का जीवन जीने को मजबूर हैं. दिहाड़ी मजदूरी से भी कम मिलने वाली मजदूरी से अब युवाओं का मोह भंग होने लगा है.जयपुर. आजादी के अमृत महोत्सव के तहत देश 75 वीं वर्षगांठ मना रहा है. इस बीच महात्मा गांधी, उनका चरखा और देश के लिए एक पैगाम भी सबके जेहन में आता है. महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत गांवों में बसता है और यह गांव ही भारत की समृद्धि का आधार है.
गांधी चरखे से खादी बनाकर गांव को कुटीर उद्योग के लिहाज से मजबूत करने की बात कह गए थे. 15 अगस्त से पहले हम आपको एक ऐसे गांव की तस्वीर दिखाएंगे. जहां खादी और कुटीर उद्योग तो है, पर आज का युवा इन दोनों से विमुख होकर शहरों की ओर पलायन करने लगा है. जयपुर से महज 30 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद बस्सी उपखंड का दामोदरपुरा के इस गांव में आखिर क्या है युवाओं की मजबूरी जिसके कारण परंपरागत काम छोड़कर युवा दूसरे विकल्प तलाश रहे हैं.
बदहाल खादी बुनकरः नाम राधेश्याम कुमावत, उम्र 75 साल. चहरे पर झुर्रियां पड़ गई हैं और उम्र ढलान पर है. लेकिन आज भी चरखा उसी अंदाज (Khadi artists of Rajasthan) में घूम रहे हैं, जिस अंदाज में पहली बार चरखे पर काम करते हुए घुमाया था. हां लेकिन अब दिखने कम लगा है. इसी तरह की तस्वीरें कमोबेस इस गांव के हर घर में देखने को मिल जाएगी.
राजस्थान के ये खादी कलाकार गुजार रहे
यह तस्वीर राजधानी जयपुर से 30 किलोमीटर दूर बस्सी उपखण्ड के दामोदरपुरा गांव की है. यहां खादी बनाने वाले बुनकरों के करीब 40 घर हैं. ये लोग वर्षों से खादी से जुड़े हुए हैं. 5 पीढ़ियों से परिवार के सदस्य महिला या पुरुष खादी से जुड़े हुए हैं. गांव के हर घर से सुबह हो या शाम चरखे की आवाज कानों को सुकून देती है. गांव को देख दशकों पहले गांधी के युग की यादें ताज़ा हो जाती हैं. महात्मा गांधी की ओर से दी हुई सीख पर आज भी यहां के लोग काम कर रहे हैं. लेकिन अब युवा पीढ़ी इस कुटीर उद्योग से दूरी बनाने लगी है. बुनकर के काम से इन युवाओं का मोहभंग होने लगा है. दिहाड़ी मजदूरी से भी कम मिलने वाली इस मजदूरी के काम से घर खर्च नहीं चलता. यही वजह है कि युवाओं ने शहरों की ओर पलायन करना शुरू कर दिया है.
भारतीयता की पहचान खादीः खादी भारतीयता की पहचान है. खादी महज कपड़े का टुकड़ा नहीं है, बल्कि जीवन दर्शन है. इसी खादी के जरिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने गांव में कुटीर उद्योग की परिकल्पना की थी. पिछले कुछ सालों में केंद्र और राज्य सरकारों ने खादी को आगे बढ़ाने के लिए बहुत प्रयास किए, लोकल फ़ॉर वोकल के साथ खादी का लोगों में क्रेज भी बढ़ रहा है. लेकिन सिस्टम की लापरवाही के चलते आज भी खादी बनाने वाले बुनकर बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं. पिछले 50 सालों से चरखे पर कतीन का काम करने वाले राधेश्याम महावर कहते हैं कि आजादी के बाद खादी ने कई दौर देखे हैं. बदलते दौर में खादी के प्रति लोगों का क्रेज बढ़ रहा है, मगर हमारी मजदूरी उतनी नहीं (Situation Of khadi artists in Rajasthan) बढ़ पाई. कभी एक थान के 10 रुपये मिलते थे, अब 200 से अधिक हो गए. मगर यह काफी नही है. दिन भर में महज 200 से 250 रुपये की मजदूरी से घर खर्च नहीं चलता है.
बंद मशीनें दे रही गवाहीः दामोदरपुरा में लगभग हर घर मे खादी के बुनकर हैं. लेकिन वो सब बुजुर्ग ही हैं. इसकी वजह है युवा पीढ़ी का (Khadi Industry of Rajasthan) खादी के इस काम से मोह भंग होना. यहां बन्द मशीनें गवाही दे रही हैं कि खादी के बुनकरों को पूरा मेहनताना नहीं मिल रहा है. लिहाजा नई पीढ़ी खादी के काम से ज्यादा दिहाड़ी मजदूरी करने पर भरोसा कर रही है.
इस संबंध में मांगी लाल महावर कहते हैं कि वे 10-15 साल के होंगे जब से खादी बनाने के काम मे लगे हुए हैं. दिन भर काम करने के बाद 200 से 250 रुपये की मजदूरी बनती है. इस मजदूरी में काम नहीं चलता. बेटा है वो शहर में जाता है मजदूरी करने, जब वो कमाकर लाता है तब कुछ घर का खर्च (Low wages of Khadi Artists) चलता है. वे कहते हैं कि खादी के काम में मजदूरी बहुत कम है. इस उम्र में पत्थर उठाने का काम भी कोई नहीं देता, इसलिए मजबूरी में यही करना पड़ रहा है. ग्यारसी देवी कहती है कि शादी से पहले पिताजी के घर भी यही काम करती थी. शादी होकर आई तो पति के साथ इसी खादी के काम में हाथ बंटाने लगी. लेकिन दिन भर पति पत्नी काम करते हैं, तब भी इस महंगाई के दौर में घर खर्च नहीं चलता है.
ये मिलती है मजदूरीः खादी ग्राम उद्योग संगम विकास समिति कार्यालय मंत्री नरेंद्र भंडारी कहते हैं कि सरकार की तरफ़ से खादी को बढ़ावा देने के लिए समय समय पर इनकी सहायता की जाती है. समिति की ओर से खादी उद्योग के लिए संसाधन उपलब्ध कराए जाते हैं. भण्डारी ने बताया कि एक चरखे पर काम करने वाले की 150 से 200 रुपये हर दिन की मजदूरी बन जाती है. इसी तरह से करघे पर काम करने वाले बुनकर को 250 से 300 रुपये की मजदूरी हर दिन मिल जाती है. इन बुनकरों के 20 से 30 प्रतिशत मजदूरी बढ़ाने के लिए भारत और राज्य सरकार से मांग की गई है. प्रदेश भर की बात करें तो लगभग 5000 हजार से ज्यादा खादी बुनकर हैं.