बीकानेर,संसार में तीन तरह की मानसिकता के लोग हैं। पहले प्रकार की मानसिकता वाले लोग जो निर्बल होते हैं। इस श्रेणी में संसारी लोग आते हैं,। दूसरी मानसिकता वाले सबलता की श्रेणी में आते हैं। जैसे साधु और साधक लोग तथा तीसरे प्रकार के लोग निर्मलता लिए होते हैं। ऐसे लोग अराधक होते हैं। हर साधक को अराधक बनना चाहिए और अराधना तभी संभव है जब हमारे अंदर क्षमा के भाव हों, यह सद्ज्ञान श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज ने बुधवार को सेठ धनराज ढ़ढ्ढा की कोटड़ी में चल रहे चातुर्मास के उपलक्ष में नित्य प्रवचन के दौरान श्रावक-श्राविकाओं को दिए।
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि क्षमा कहने और सुनने में बहुत छोटा केवल दो अक्षर का शब्द है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्षमा कौन कर सकता है..?। महाराज साहब ने कहा कि क्षमा वही कर सकता है जो कर्म सिद्धान्त पर विश्वास करता है। उसके अन्दर क्षमा का भाव पैदा होता है। यही क्षमा का भाव साता वेदनीय कर्म का बंध करता है। लेकिन संसारी लोग इस मामले में निर्बल होते हैं। संसारी लोगों की हर काम में अपने आप को निर्बल महसूस करते हैं। मैं क्या कर सकता हूं..?, मुझसे क्या होगा..?, संसारी की यह मानसिकता रहती है। अपराधी के साथ अपराध करना बैर परम्परा को बढ़ाता है। बदले की भावना संसारी के मन में रहती है। लेकिन साधक और अराधक इस मानसिकता में नहीं जीते हैं। महाराज साहब ने कहा कि बदला लेने की भावना निकृष्ट भावना होती है और सहन करने की भावना उत्कृष्ट भावना होती है।
इस विषय पर एक प्रसंग बताते हुए कहा कि एक बार एक अमेरिकी सेनापति अपने सैनिकों के साथ कहीं पर जा रहा था। रास्ते में एक व्यक्ति ने उस सेनापति के मुंह पर थूक दिया। सेनापति को इस पर कोई गुस्सा नहीं आया, लेकिन सैनिक ने उस पर बंदूक तान दी। यह देख सेनापति ने कहा, ठहरो, यह कहकर उसने जेब से रुमाल निकाला और चेहरा पूंछते हुए कहा कि जो काम एक छोटा सा रुमाल कर सकता है, उसके लिए बंदूक की कहां जरुरत आ गई। महाराज साहब ने बताया कि जब एक अंग्रेज वह भी सैनिक होकर जैन धर्म की भावना रखता है तो आप लोग तो जैन की संतान हो, आपको तो क्षमा भाव रखने ही चाहिए। महाराज साहब ने कहा कि नर का सौंदर्य रूप है। रूप का सौंदर्य गुण है और गुण का सौंदर्य ज्ञान है तथा ज्ञान का सौंदर्य क्षमा है। लेकिन आजकल देखने में आ रहा है कि लोगों में क्षमा का स्थान क्रोध ने ले लिया है। बात-बात में लोग आक्रोशित हो जाते हैं, सहनशीलता जवाब दे जाती है, यह ठीक नहीं है।
महाराज साहब ने कहा कि पुण्य कमाइये, पुण्य की शक्ति सबसे बड़ी शक्ति है। अपने पुण्य- पाप का चिंतन करो। बस यही ज्ञान है, इस ज्ञान की सरिता में गोता लगाएं। सहनशील बनें, सहिष्णु बनें, सच्चे बनें और अपने समय, शांति तथा सामर्थ्य को सृजन में लगाना है, यह भाव मन में रखना चाहिए।
आचार्य श्री ने कहा कि भाव बिगड़ता है तो इससे व्यवहार बिगड़ता है। व्यवहार के बिगडऩे से संबंध बिगड़ते हैं, संबंधों के बिगडऩे से घर बिगड़ता है और घर बिगडऩे से पुनवानी खराब होती है और जब पुनवानी खराब हो जाती है तो परम्परा खराब हो जाती है। महाराज साहब ने कहा कि सदैव याद रखो भाव किसी के प्रति बिगाड़ो, भाव तो अपना ही बिगड़ेगा। इसलिए अपने धर्म में स्थिर रहें, अपने भाव मत बिगाड़ो, यह सबसे बड़ी हिंसा है। जितनी कू्ररता, कठोरता, निर्दयता और निर्ममता किसी के प्रति मन में रहेगी, उतने ही आपके भाव बिगड़ते जाएंगे। इसलिए इस पर चिंतन करो, क्षमा के गुण को अपनाने का निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए। प्रवचन विराम के बाद आचार्य श्री ने भजन ‘उम्र थोड़ी सी हमको मिली थी मगर, वो भी घटने लगी देखते-देखते’ और ज्ञान साधना की सरिता में, गोते खूब लगाओ, तुम अपनी मंजिल पाओ’ के माध्यम से जीवन का सार बताया।
सामूहिक एकासन रविवार को
श्री शान्त- क्रान्ति जैन श्रावक संघ के अध्यक्ष विजयकुमार लोढ़ा ने बताया कि श्री संघ की ओर से सामूहिक एकासन रविवार 7 जुलाई को अग्रसेन भवन में आयोजित किया जाएगा।