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बीकानेर,श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने बागड़ी मोहल्ला स्थित सेठ धनराज ढढ्ढा की कोटड़ी में चल रहे चातुर्मास पर नित्य प्रवचन में कहा कि संसारी कौन…?, प्रश्न का उत्तर देते हुए महाराज साहब ने बताया कि जो धर्म में लाचारी रखता है और पाप में होशियारी रखे वो  संसारी होता है। आज देखा जा सकता है कि धर्म को लोग लाचारी मानने लगे हैं। जबकि संसारी का पाप करना उसकी लाचारी होती है। जैन दर्शन में बताया गया है कि पाप करना लाचारी होता है, वह ना चाहते हुए भी करना पड़ता है। अगर पाप को लाचारी मानकर चलते हैं तो हम पाप को प्रगाढ़ नहीं होने देते। महाराज साहब ने कहा कि धर्म को महत्व दो, धर्म का जितना अनुसरण करोगे उतना ही पाप को दूर कर सकोगे। इसलिए धर्म के लिए मन में तड़प पैदा करो, धर्म प्रारंभ में कठिन होता है। लेकिन करते-करते यह सहज और सरल हो जाता है। महाराज साहब ने कहा कि मन क्या चाहता है ..?, मन पाप चाहता है। मन हमेशा अपने अनुकूल चाहता है और मन पाप में राजी रहता है। इसलिए कहा भी गया है , पाप पहले मन में उतरता है। इसके विपरित धर्म पहले शरीर में आता है, फिर व्यवहार में आता है और उसके बाद धीरे-धीरे यह मन में उतरता है। इसलिए धर्म हमारे लिए आसान नहीं है, कठिन है। इसके लिए सबसे पहले धर्म को तन में उतारो, इसके बाद यह मन में उतरेगा। सामायिक पर व्याख्यान देते हुए आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि सामायिक हमें धर्म की ओर उन्मुख करती है। सामायिक करना बहुत अच्छा है। कई बार श्रावक सामायिक करने से कतराते हैं, क्योंकि सामायिक उनके मन में नहीं है। वह केवल इसलिए कर लेते हैं कि महाराज साहब रोज कहते हैं तो कर लेते हैं। यह सोचकर भी सामायिक किया जा रहा है तो भी करो, यह बहुत अच्छा है। करते-करते कभी ना कभी इसका मन से कनेक्शन हो ही जाता है। महाराज साहब ने चेतावनी भजन की पंक्तिया ‘मित्रों मत करना अभिमान इक दिन निकल जाएंगे प्राण’ सुनाते हुए कहा कि संसार में कोई जीव आता है वह अमरता की जड़ी-बूटी खाकर नहीं आता है। जाना सबको है, जाना तय है लेकिन कब जाना है यह तय नहीं है। इसलिए जिंदा रहना है तो संयम की साधना करो। जिसने संयम को साध लिया वह मरकर भी जिंदा रहते हैं। महापुरुषों ने संयम को धारण किया है। आज भी वह मरे नहीं हैं। आदमी मरता शरीर से है, शरीर तो कपड़े की तरह होता है। पुराना हो गया, गल-फट गया तो आदमी नए कपड़े पहन लेता है। ठीक इसी प्रकार जब तन पुराना हो गया, समय पूर्ण हो गया तो आत्मा नए शरीर को धारण करती है। लेकिन इससे भी पार केवल संयमी महापुरुष ही जा सकते हैं, जिन्होंने मोक्ष को प्राप्त किया है।
महाराज साहब ने कहा कि अभी साता और असाता वेदनीय कर्म बंधन के विषय में बताया जा रहा है। जब तक हम असाता वेदनीय कर्म के बंधन को नहीं समझ लेते, साता वेदनीय कर्म को नहीं समझा जा सकता। इसलिए असाता वेदनीय को समझना होगा। असाता से बचो, साता का बंध करो, इस संदर्भ में महाराज साहब ने पूरण सेठ और जिरण सेठ तथा भगवान महावीर की कथा सुनाई।
महाराज साहब ने कहा कि बुरे कर्मों से बचना चाहिए, नास्तिक मत बनो, अधार्मिक मत बनो, धार्मिक बनो, आस्तिक बनो और अपने जीवन को धर्म की ओर उन्तुख करो। आप दुनिया के लिए केवल एक व्यक्ति हैं, लेकिन अपने परिवार के लिए पूरी दुनिया है। परिवार हमेशा आपकी ओर आशा तथा उम्मीद के साथ देखता है। इसलिए सदा याद रखो कि पाप को लाचारी समझना और धर्म में होशियारी रखना। प्रवचन के बाद महाराज साहब ने बताया कि संघ के श्रावक-श्राविकाओं में निष्ठा का भाव है। जिनकी गुप्त तपस्याएं चल रही हैं। संघ के साधु- महासती भी गुप्त तपस्याऐं कर रही है।महाराज साहब ने तेला, बेला, आयम्बिल एकासना और उपवास करने वालों को आशीर्वाद दिया।
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब के दर्शनार्थ बाहर से पधारे अतिथियों का स्वागत श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ की ओर से किया गया। अध्यक्ष विजयकुमार लोढ़ा ने बताया कि राजस्थान खाद्य पदार्थ व्यापार संघ के अध्यक्ष एवं व्यापार उद्योग भारती दिल्ली के चैयरमेन जयपुर से बाबुलाल गुप्ता, अलवर से उपाध्यक्ष सुरेश अग्रवाल, कोटा से महामंत्री  राजेन्द्र खण्डेलवाल, जयपुर से मंत्री कैलाश खण्डेलवाल आदि ने  आचार्य श्री के सानिध्य में धर्म- ध्यान पर चर्चा की एवं मंगलपाठ सुना तथा  आशीर्वाद लिया।

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