बीकानेर,आत्मा की माने वो ज्ञानी और जो आत्मा की ना माने वो अज्ञानी है। हम ज्ञानी हैं कि अज्ञानी हैं, यह निर्णय हमें सत्संग में बैठकर करना है। यह उद्गार श्री शान्त-क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने अपने नित्य प्रवचन में व्यक्त किए। सेठ धनराज ढढ्ढा की कोटड़ी में आचार्य श्री के 50 वें स्वर्णिम दीक्षा वर्ष पर चल रहे चातुर्मास के प्रवचन सभा में महाराज साहब ने कहा कि आत्मा हमें यह कभी नहीं कहती कि तू पाप कर, अधर्म कर, खोटे काम कर, लेकिन हम यह सब आत्मा के ऊपर से करते हैं। वह हमें ऐसे कर्म करने के बाद कचौटती है। लेकिन हम सुने का अनसुना करते हैं। हम मोह, माया राग में लगे रहते हैं। इसलिए हम आत्मा का कहा भी नहीं सुनते है। और फिर यह भी चाहते हैं कि हमें सुख मिले, साता मिले, यह कैसे संभव हो सकता है।
महाराज साहब ने जन जन के लिए प्रिय मधुर वाणी में भजन ‘कदम-कदम पर संभल-संभल कर , चलना रे चेतनीया, ऊंची-नीची, ऊबड़ – खाबड़ जीवन की डगरिया ’सुनाते हुए कहा कि हमारे जीवन की डगर सीधी-सपाट नहीं है, इसमेंं बहुत अवरोध है। लेकिन इन अवरोधों से बचना है तो पहले आत्मा की मानो, फिर महात्मा की मानो और जब महात्मा की मानने लगोगे तो परमात्मा की भी मानने लग जाओगे। और जो आत्मा की नहीं मानता वह ना महात्मा की मानता है और ना ही परमात्मा की मानता है।
आचार्य श्री ने पाप के तीन कारण बताए हैं। पहला कारण अज्ञान है, दूसरा कारण मोह और तीसरा आसक्ति है। व्यक्ति इन तीन कारणों से पाप करता है, करवाता है और पाप कर्म करने वालों को अच्छा मानता है। हम आत्मा की सुनी अनसुनी करते हैं। जैसे आजकल के बच्चे मां-बाप या घर में बड़े सदस्यों की अनसुनी करता है। लेकिन जब ठोकर लगती है तो पछतावा करते हैं कि हमसे गलती हुई है। हमने मां बाप का कहना नहीं माना, महाराज साहब ने कहा ऐसे बच्चे क्यों करते हैं …?, क्योंकि उनमें अहंकार भरा होत है। अपनी नई-नई समझ का, शिक्षा का, यह झूठा अहंकार होता है जो उन्हें हर कार्य में अच्छे और बुरे का भेद नहीं होने देता है। ठीक वैसे ही हम भी आत्मा की सुनी अनसुनी कर देते हैं।
महाराज साहब ने कहा कि यह ध्यान रखना चाहिए कि पहले तो हम गलती करें ही नहीं, लेकिन अगर हो गई है तो उसकी पुनरावृति नहीं होनी चाहिए। आदमी एक बार ठोकर खाता है तो वह अनभिज्ञता होती है। लेकिन बार-बार ठोकर खाना नादानी कहलाती है। आदमी को अपने किए का अपराध बोध होना चाहिए। जिसे अपराध बोध नहीं है, वह अपराधों की जिदंगी जीता है। व्यक्ति को अपराध बोध होना चाहिए कि जो मैंने किया वह अब नहीं करुंगा, इसमें आदमी के अंदर उस कृत्य के प्रति घृणा के भाव पैदा होने शुरू हो जाते हैं और वह अपराध से मुक्त होने लग जाता है। महाराज साहब ने कहा कि आत्मा किसी की भी हो, वह आपका सुख चाहेगी, कल्याण चाहेगी, उत्थान चाहेगी लेकिन वह आपका बुरा कभी नहीं चाहती है। महाराज साहब ने भजन की चार पंक्तियां ‘मोह त्याग की कठिन तपस्या, अब सुलझाले यह समस्या, परम ज्योति में मिल जासी, मोह त्याग दे सुख पासी’ के माध्यम से बताया कि राग मोह को रखने वाला कैसे सुखी रह सकता है। आत्मा का पोषण करो, मोह त्याग करने पर यह संभव है।
महाराज साहब ने प्रवचन में उपस्थित श्रावक-श्राविकाओं से कहा कि आप तेला, बेला, पंचौला करते हैं। यह शरीर का शोषण करते हैं लेकिन अगर आपने आत्मा का पोषण नहीं किया तो फिर क्या किया। इसलिए त्याग का राग करो, अगर यह नहीं किया तो यह जीवन नहीं कितने-कितने जीवन यूं ही चार गतियों और चौरासी लाख यौनियों में भटकता रहता है। उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, जीव का कल्याण नहीं होता है। महाराज साहब ने कहा कि ‘अंत मति सो गति’ जीव का जब अंत समय आता है तब जो भाव उसके मन में होते हैं, उस भाव से ही उसकी आगे की गति होती है। जब तक उसका आगे के लिए आयुबंध नहीं होता है, उसे मुक्ति नहीं मिलती है। एक सन्यासी की कथा के माध्यम से उन्होंने उपस्थितजन को सार रूप में यह समझाया।
श्री शान्त- क्रान्ति जैन श्रावक संघ के अध्यक्ष विजयकुमार लोढ़ा ने बताया कि प्रवचन के बाद नित्य होने वाले अन्य कार्यक्रमों की जानकारी उपस्थितजनों को दी गई। तपस्या करने वालों को आचार्य श्री ने आशीर्वाद दिया। ज्योति सुराणा ने 9 की और प्रकाशचंद राखेचा ने 10 के तपस्या की पारणा किया , वहीं मधु श्रीश्रीमाल एवं अंजू बाँठिया के 9 की तपस्या चल रही है।