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बीकानेर,गणगौर में गवर का राजशाही ठाठबाट। गणगौर के दो दिन जब गवर जूनागढ़ से बाहर निकलती है तो ऐसे लगता है कोई महाराजा या फिर महारानी बाहर आ रही है। रास्ता बंद हो जाता है, गवर की पहली झलक दिखने के साथ ही मुख्य द्वार पर खड़े राजशाही बैंड पर धुन शुरू हो जाती है। इतना ही नहीं जब गवर ठुमकती हुई बाहर निकलती है तो जनता भी सड़क के दोनों और खड़ी होकर वैसे ही निहारती है, जैसे कभी राजा-रानी को बाहर निकलने पर निहारते होंगे। दरअसल, बीकानेर में गवर की शाही सवारी दो बार निकलती है। सोमवार के बाद अब मंगलवार को भी गवर बाहर आएगी। चौतीना कुआ तक की करीब एक किलोमीटर की यात्रा तय करेगी और फिर वापस जूनागढ़ पहुंचेगी। ये दृश्य ऐसा है जैसे कोई राजकुमारी को गढ़ से बाहर निकल रही है और प्रजा उसकी एक झलक पाने के लिए लालायित है। बीकानेर सहित हर कहीं गवर के साथ उसका ईसर भी निकलता है लेकिन बीकानेर की शाही गवर अकेली ही निकलती है। राजशाही बैंड आगे आगे चलते हैं और ऊंट, घोड़े सजधज कर गवर के साथ साथ चलते हैं। घोड़े पर राजपरिवार के सैनिकों की वेशभूषा में राजस्थानी साफे के साथ जवान बैठे होते हैं। हाथ में ध्वज लिए इन जवानों से ही शाही यात्रा की शोभा बढ़ जाती है।

दरअसल, जब जोधपुर से निकलकर राव बीका ने इस शहर को स्थापित कया तो राव जोधा ने बारह वस्तुएं राव बीका को दी थी। इन्हीं में एक गवर भी है। इस बहुमूल्य गवर को तब से बीकानेर में शाही सवारी करवाई जाती है। पांच सौ साल में राजाओं के राज चले गए, शहर पूरा बदल गया लेकिन जोधपुर रियासत से मिली इस गवर में कुछ नहीं बदला। वो ही पौशाक, वो ही आभूषण से लखदख गवर आज भी बीकानेर की महिलाओं व युवतियों के आकर्षण का केंद्र है।

बीकानेर के जूनागढ़ से सोमवार व मंगलवार को शाही सवारी में निकलने वाली गवर का वैभव इतना जबर्दस्त है कि वर्ष 1698-99 में जैसलमेर के सीधा गांव का मेहा भाटी इस गणगौर को लूटकर ले गए थे। इतिहासकार डॉ. शिवकुमार भनोत बताते हैं कि इसे राठौड़ों ने अपना अपमान समझा। चूरू के लोहावट गांव के लाखन सिंह बिदावत अपने साथियों के साथ सीधा गांव गए और वहां मेहा भाटी को मारकर अपनी गणगौर वापस लाए

बीकानेर के जूनागढ़ से सोमवार को शाही सवारी निकली थी। अब मंगलवार को शाम साढ़े पांच बजे फिर से शाही सवारी निकलेगी। इस दौरान बड़ी संख्या में लोग जूनागढ़ के आगे पहुंच जाते हैं। मंगलवार को भी एक बार फिर ऐसा ही दृश्य देखने को मिलेगा।

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