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बीकानेर,मीडिया क्षेत्र में काम करने वाले संस्थान, संपादक और पत्रकार सोचे की मीडिया में गिरावट क्यों आई है। लोकतंत्र के चौथा स्तंभ पर सरकार पाबंदियां पर पाबंदिया क्यों लगाती जा रही है। मीडिया अपनी साख बचाने की जुगत भी कर पाने में समर्थ है क्या। मीडिया के लोगों में नैतिक बल बचा है क्या। वे क्या कारण हैं जिनके चलते मीडिया की प्रतिष्ठा कम होती ही जा रही हैं। कई मीडिया संस्थान धन कमाने में येनकेन प्रकारेण जुटे हैं । ऐसे मीडिया संस्थान अपने पत्रकारिता ( चौथे स्तंभ) के धर्म को भूल गए हैं। समाज और राजनेता पत्रकारिता को उपमाएं देते जा रहे हैं। पीत पत्रकारिता तो शब्द छोटा पड़ गया है। बिकाऊ मीडिया, गोदी मीडिया, दलाल.. पता नहीं और क्या क्या। पतन का यह हश्र हो गया है कि सरकारों में पत्रकारिता का नैतिक भय समाप्त हो गया है। पत्रकारिता में नए आने वाले लोग भी क्या शिक्षा लेकर आ रहे हैं। पत्रकारिता पर मार्केटिंग हावी है। ऐसे में पत्रकारिता की साख पर बट्टा लग गया है। साख नहीं है तो सरकारें दबाने की कोशिश में है। राजस्थान सरकार ने विधानसभा कवरेज के लिए पत्रकारों को पास देने पर पाबंदी लगा दी है। प्रेस दीर्घा सदन की कार्रवाई के दौरान खामोश रहती है। राजस्थान विधानसभा में विशेषाधिकार भंग और इसकी अवमानना का हवाला देकर मीडिया पर पाबंदी लगा दी है। अब सचिवालय में कवरेज के लिए पत्रकारों के प्रवेश पर शिकंजा कसा जा रहा है। वैसे नेताओं और अफसरों का प्रेस के प्रति रवैया अच्छा नहीं है। इसका कारण खुद पत्रकार और मीडिया संस्थानों का अपनी भूमिका और कर्तव्य के प्रति ईमानदारी की कमी माना जा सकता हैं। मीडिया पर चहुं ओर से संकट छाया हुआ है। देश में मीडिया पर पाबंदियां लगाने का दौर जारी है। ऐसे में मीडिया अपनी खोती जा रही साख को पुनर्स्थापित करने के लिए क्या कर सकता है। क्या चौथे स्तंभ के जिम्मेदारी लोग ही लोकतंत्र के इस स्तंभ को नहीं ढह रहे हैं? मीडिया पर जिम्मेदारी है कि लोकतंत्र के हित में चौथे स्तंभ को निर्भीक, ईमानदार, निष्पक्षता और जनहित के लिए संघर्ष की छवि वापस लोटाएं । अन्यथा पत्रकारिता अपने धर्म से च्युत होकर कहीं राजनीति, अर्थसत्ता, ब्यूरोक्रेसी और व्यवस्था की पिछलगु तो नहीं बन जाएगी? यह लोकतंत्र, राष्ट्रीय हित, मानवता और आम जन के हित में मीडिया धर्म को सोचने की बात है।

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