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बीकानेर,जब किसी दबंग या अफसर नेता के परिवार का कोई सदस्य अस्पताल में भर्ती होता है। तीसरा खुद अस्पताल का स्टाफ भी कई बार ऐसी घटनाओं के पीछे कारण बन जाता है। चौथा कारण कम महत्वपूर्ण नहीं है। वह है अस्पताल तंत्र का भी ‘वीआईपी कल्चर’ से पीड़ित होना। यह वीआईपी कल्चर मरीज के परिजनों को जहां ‘खास’ होने का अहसास कराता है, वहीं अस्पताल स्टाफ को कहीं ‘कमतर’ होने का भी अहसास दे जाता है। खाई यहीं से बढ़ती है और फिर पूरी फिल्म सामने आती है, जिसमें एक्शन, ड्रामा और क्लाइमेक्स सब कुछ होता है। इसे रोका जा सकता है। खुद अस्पताल तंत्र इसमें बड़ी भूमिका निभा सकता है। दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नागरिकों की है। उनकी मनोदशा समझी जा सकती है, लेकिन उन्हें भी सामने वाले की स्थिति और हालात को समझना होगा। गलती और मानवीय भूल में भेद करना भी सीखना होगा। अस्पतालों में नर्सिंगकर्मी ‘डॉक्टर्स से ‘आमजन’ या ‘खासजन’ द्वारा मारपीट करने की खबरें शायद अब हैरान नहीं करतीं। वजह भी साफ है। भारत के लगभग हर शहर यहां तक कि देहात के इलाकों में भी पीएचसी-सीएचसी तक में यह घटनाएं अक्सर सुनने में आती हैं। कभी सोचा है आपने कि क्यों हर घटना का प्लॉट, स्क्रिप्ट और अंत में क्लाइमेक्स भी एक जैसा होता है? क्यों हर घटना की शुरुआत किसी मरीजके सामान्य’ परिजन या ‘खास’ परिजन की ओर से किसी नर्सिंग स्टाफ या फिर जूनियर सीनियर डॉक्टर से मारपीट से शुरू होती है। क्यों ही स्क्रिप्ट के अगले चरण यानी कि कार्य बहिष्कार की नौबत आती है। क्यों क्लाइमेक्स में फिर वही जांच और कार्रवाई की बात दोहरां कर, हालात को संभाला जाता है? दरअसल, पूरे मामले के एक ही तरह शुरू होने और एक ही तरह से अंत ना होने के बाद फिर से किसी और दिन ने क न्य न ई। नन की यही क्रम दोहराने की वजह व्यवस्थागत कमियों के साथ-साथ अहम का टकराव और भरोसे की कमी भी है। ऐसी घटनाओं में एक तो कारण क्षणिक उद्वेग होता है, जो किसी मरीज की मौत हो जाने पर उसके परिजनों में पैदा होता है। दूसरा अहम होता है,

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