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बीकानेर,एक तरफ सरकार ‘पहला सुख निरोगी काया..को लक्ष्य मानकर चिकित्सा एवं स्वास्थ्य क्षेत्र में नई-नई योजनाएं शुरू कर रही है, दूसरी तरफ यह आंकड़ा सामने आया है कि पिछले सत्रह साल में स्वास्थ्य मिशन के तहत 30 हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद हम गांवों तक चिकित्सा सेवा के पर्याप्त संसाधन ही मुहैया नहीं करवा पाए। ऐसी हालत में शिशु-मातृ मृत्यु दर कम करने और सुरक्षित मातृत्व का लक्ष्य कैसे पूरा हो सकता है। सरकार भले ही इस बात पर पीठ थपथपा ले कि प्रदेश में शिशु मृत्यु दर में 50 प्रतिशत की गिरावट आई है, लेकिन यह लोगों की जागरूकता और बड़े शहरों में बढ़े संस्थागत प्रसवों के कारण ही हो पाया है।

साल 2005 में जब स्वास्थ्य मिशन शुरू हुआ था, उस वक्त जोर इसी बात पर था कि मातृत्व सुरक्षित हो, तो शिशु-मातृ दर में कमी आए और इसके चलते ही लगभग सभी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और 50 फीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 24 घंटे प्रसव सुविधा मुहैया करवाने की व्यवस्था करने का लक्ष्य तय किया गया। हालत यह है कि राजस्थान में ही प्राथमिक स्तर के 3200 में से दो हजार छोटे अस्पतालों में ही प्रसव सुविधा है। इसलिए प्रसव के लिए इधर-उधर भागना पड़ता है और दस साल में 80 फीसदी संस्थागत प्रसव करवाने का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया है। अब संस्थागत प्रसव 60 फीसदी से कम हो रहे हैं।

यह स्थिति इसलिए भी है कि जनसंख्या के आधार पर जहां प्रदेश में 500 नवजात शिशु रोग इकाइयां होनी चाहिए थीं, शुरू मात्र साठ जगहों पर हो सकी हैं। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर तो इनकी संख्या महज 20 ही है। सरकार का ही आंकड़ा है कि राज्य में करीब 3000 स्त्री व प्रसूति विशेषज्ञों की जरूरत है, लेकिन उपलब्ध 1100 ही हैं और इनमें से भी 80 प्रतिशत शहरी इलाकों में ही पदस्थापित या प्रतिनियुक्ति पर हैं। चिकित्सा संसाधनों में भी करीब 50 फीसदी का टोटा है। कहीं चिकित्सक नहीं हैं, कहीं दूसरे संसाधन नहीं हैं। बेहतर हो कि सरकार गांवों में चिकित्सा संसाधनों की सोशल ऑडिट भी करवाए और स्वास्थ्य मिशन के क्रियान्वयन की सख्त निगरानी हो। खाली पद भरने के साथ गांवों में चिकित्सकों व चिकित्सा कर्मियों की हर समय मौजूदगी सुनिश्चित की जाए। वरना न मिशन का उद्देश्य पूरा हो पाएगा और न ही मातृ-शिशु मृत्यु दर में कमी का लक्ष्य पूरा हो पाएगा।

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