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बीकानेर शहर के हर मोहल्ले में रोशनी से नहाए घर, सजे-धजे पीले कपड़ों में दूल्हा और पीली साड़ी में दूल्हनें नजर आ रही हैं। हर घर-आंगन में खुशियों की गूंज है। दूर-दूर से नाते-रिश्तेदार पहुंच चुके हैं। कहीं हल्दी तो कहीं कुमकुम लगाकर रस्मों को निभाया जा रहा है। घर के बड़े-बुजुर्ग नए कपड़े पहन मेहमानों के स्वागत-सत्कार में लगे हैं। हर घर में बच्चों का हुल्लड़ नजर आ रहा है। इस तरह का नजारा किसी एक घर या मोहल्ले का नहीं है, बल्कि पूरे परकोटा क्षेत्र का है। बीकानेर में इसे ‘शादी का ओलिंपिक’ कहा जाता है। सही शब्दों में लिखें तो पुष्करणा ब्राह्मणों का ओलिंपिक सावा, जो आज (शुक्रवार) ही है। इस खास सावे में एक या दो नहीं, बल्कि 300 से ज्यादा घरों में एक साथ शहनाई बजेगी। यह परंपरा करीब 450 साल पुरानी है।

सैकड़ों साल पुरानी यह परंपरा सिर्फ बीकानेर में निभाई जाती है। यहां पुष्करणा समाज एक ही डेट पर शादी के योग्य हो चुके अपने बच्चों की शादियां कर देता है। इसके पीछे समाज की एक बहुत अच्छी सोच है। सभी घरों में शादी होगी तो किसी एक घर में ज्यादा मेहमान नहीं पहुंचेंगे। कम बाराती पहुंचेंगे, तो बेटी के बाप पर ज्यादा खर्च नहीं आएगा। एक ही दिन में इतनी शादियां होती हैं कि पूरा शहर बाराती नजर आता है। शादी के इतने मंडप सजते हैं कि पंडित भी नहीं मिल पाते। एक-एक पंडित 5-10 शादियां कराते हैं।

चट मंगनी पट ब्याह
महज 23 साल का लव कुमार बाजार में घूम रहा था कि उसके पिता ने फोन करके बताया कि घर आजा परसों तेरी शादी है। वो कुछ समझ पाता, उससे पहले तो लड़की वाले उसके घर पहुंच गए। अपनी होने वाली पत्नी को उसने अब तक देखा ही नहीं था। कुछ घंटों में ही उसकी शादी हो जाएगी। लव और दीपिका तो इस ओलिंपिक सावे का एक उदाहरण हैं। हकीकत में ऐसे कई जोड़े हैं, जिनका विवाह कुछ घंटे की तैयारी में हो जाता है। चट मंगनी, पट ब्याह की तर्ज पर शादियां तय हो जाती हैं।

विष्णु रूप में आता है दूल्हा
इस ओलिंपिक विवाह की हर रस्म खास होती है। दूल्हे सूट-बूट में नहीं आते, बल्कि विष्णु रूप में आते हैं। सूट या शेरवानी पर खर्च की बजाय दूल्हे को पारंपरिक पीले रंग की बनियान पहनाई जाती है और पैंट की जगह पीले रंग की धोती। कांधे पर एक पीतांबर होता है। वहीं सिर पर साफे की बजाय पाग होती है, जिसे विशेष तरह से बांधा जाता है। इसे ‘खड़गिया’ पाग कहा जाता है। ललाट पर चंदन का बड़ा तिलक लगाया जाता है ताकि दूल्हे का दिमाग ठंडा रहे।

यहां वर शिव के रूप में स्वीकार किया जाता है और हल्दी के दौरान छोटे बच्चों को साथ बिठाया जाता है।
यहां वर शिव के रूप में स्वीकार किया जाता है और हल्दी के दौरान छोटे बच्चों को साथ बिठाया जाता है।
दूल्हे-दुल्हन की रेस, जीतते हैं इनाम
पुष्करणा सावे के दौरान दुल्हन और दूल्हा की रेस भी होती है। बिंदौली के वक्त सबसे पहले निकलने वाली दुल्हन को शहर के कई मोहल्लों में रोककर पुरस्कार दिया जाता है। इसी तरह, विवाह के दिन बारात लेकर जो दूल्हा सबसे पहले चौक से निकलता है, उसे भी पुरस्कार दिया जाता है। उसी दूल्हे को पुरस्कार मिलता है, जो विष्णु रूप में तैयार होकर जाता है। ये सब शहर की संस्कृति को बनाए रखने के लिए किया जाता है।

ऐसे निकालते हैं ओलिंपिक सावा
जब ब्राह्मण इस आयोजन की तारीख तय करते हैं, तो साल का श्रेष्ठतम मुहूर्त निकाला जाता है। ये मुहूर्त किसी लड़के या लड़की के नाम पर नहीं बल्कि शिव और पार्वती के नाम से ही निकलता है। दोनों की कुंडली का मिलान कर जो श्रेष्ठ मुहूर्त होता, उसी दिन को तय किया जाता है। ऐसे में किसी भी दूल्हे या दुल्हन को अच्छा मुहूर्त देखने की जरूरत ही नहीं होती।

सगाई के बाद जब दोनों परिवारों के रिश्तेदार मिलते हैं तो कुमकुम लगाकर शुभ कार्यों की शुरुआत की जाती है।
सगाई के बाद जब दोनों परिवारों के रिश्तेदार मिलते हैं तो कुमकुम लगाकर शुभ कार्यों की शुरुआत की जाती है।
इसलिए कहते हैं ओलिंपिक सावा
बीकानेर का पुष्करणा ओलिंपिक पहले 9 साल के अंतराल से होता था। अब ये दो साल के अंतराल से होता है। इससे पहले सात साल और फिर चार साल के अंतराल पर होने लगा था। चार साल के अंतराल से ही ओलिंपिक होता था। इसलिए इस सावे को भी ओलिंपिक कहा जाने लगा।

पुष्करणा सावे में विष्णु रूप में दूल्हा ये खड़ाऊ पहनकर विवाह करने जाता है।
बाहर से आते हैं, विवाह कर जाते हैं
बड़ी संख्या में बाहर रहने वाले पुष्करणा समाज के प्रवासी ओलिंपिक सावे की तारीख से कुछ दिन पहले बीकानेर आ जाते हैं। अपने पुराने घर में रुकते हैं। दो-तीन दिन की पड़ताल के बाद रिश्ते तय कर देते हैं। कुछ दिन में ही शादी की रस्म पूरी कर वापस लौट जाते हैं। कोलकाता, महाराष्ट्र, असम, गुवाहाटी सहित अन्य एरिया में रहने वाले समाज के प्रवासियों को ओलिंपिक सावे का खासा इंतजार रहता है।

बैंड बाजा बारात सब बहुत कम संख्या में है। ऐसे में ढोल बजाने वाले की थाप पर ही बारात निकल जाती है। ये दृश्य गणेश परिक्रमा के दौरान का है।
बैंड बाजा बारात सब बहुत कम संख्या में है। ऐसे में ढोल बजाने वाले की थाप पर ही बारात निकल जाती है। ये दृश्य गणेश परिक्रमा के दौरान का है।
दहेज से कोसों दूरी
इस सावे की खास बात ये है कि इसमें किसी तरह का लेनदेन नहीं होता। दहेज के नाम पर लाखों रुपए लेने वालों के सामने पुष्करणा समाज की यह रीत सबसे बड़ा उदाहरण है। गरीब परिवारों को तो सहायता के लिए हाथ उठते हैं। बड़ी संख्या में गरीब परिवारों को विवाह सामग्री के साथ नगदी भी पहुंचाई जाती है। बड़ी बात है कि सहायता देने वाले अपना नाम कभी सार्वजनिक नहीं करते। सारा काम समाज के नाम पर होता है।

वधू जब गणेश परिक्रमा (बिंदौली) में निकलती है, तो समाज के बुजुर्ग उसे आशीष देते हैं। पूर्व राजपरिवार निभाता है परंपरा
इस विवाह समारोह में बीकानेर का पूर्व राजपरिवार आज भी अपनी भूमिका निभाता है। परंपरा के अनुसार, ब्राह्मण समाज के विद्वान पहले राज परिवार से सावा आयोजित करने की अनुमति लेने जाते हैं। वर्तमान में राजमाता सुशीला कुमारी इसकी अनुमति देती हैं। इसके बाद विवाह के दिन राजपरिवार सदस्य और वर्तमान में बीकानेर पूर्व से विधायक सिद्धि कुमारी इस आयोजन में शामिल होती हैं। विवाह कर रही हर लड़की को पूर्व राजपरिवार की ओर से गिफ्ट भी पहुंचाया जाता है।

एक ही घर में दर्जनों निमंत्रण पहुंचते हैं। हर विवाह में पहुंचना मुश्किल हो जाता है।
सरकार ने पूरे शहर को माना एक छत
पुष्करणा समाज के सामूहिक सावे को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार की ओर से सामूहिक विवाह की तरह अनुदान भी दिया जाता है। इसके लिए हर बार परकोटे में बसे पूरे शहर को एक छत और एक घर माना जाता है। ताकि सभी को अनुदान दिया जा सके।

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