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बीकानेर,पुष्करणा सावे का इतिहास करीब पांच सौ साल पुराना है। इसका इतिहास पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे को सुनने को मिलता रहा है।

बीकानेर के चौथे शासक राव जैतसिंह (1526-1542) के शासन काल का एक वाकया बुजुर्गोंों से सुना हुआ है। उस समय भी पुष्करणा समाज के लोग सामूहिक शादियां ही किया करते थे। उनके कार्यकाल में भीष्ण काल पड़ा तो उन्होंने आज्ञा निकाली कि शादी में केवल गुड़ की लापसी ही की जाएगी। राजा की आज्ञ के अनुसार उस समय केवल एक मिठाई के साथ शादियां हो रही थी। समय में बदलाव हुआ तो सूरतशाही लड्डू बनने लगे। व खोये के अभाव के कारण देशी घी की मिठाई राजा की आज्ञा से कर सकते थे। नी सदियों से पुष्करणा समाज का सामूहिक वा मितव्यता की डोर पर चलता रहा। समय चलता गया। आज तीन से चार मिठाइयां भोज होने लगी है। गुड़ की लापसी से शुरू हुआ ड्राईफ्रूट की कतली तक पहुंच गया है। साथ ही कई रीति-रिवाज लुप्त हो गए हैं बारातियों के बड़े-बुजुर्गों के पांव लकड़ी ठौने में धोने, तंबोलण पढ़ने जैसी परंपरा लुप्त हो गई है।

दूल्हा विष्णु रूप में पैदल ही जाता था। चशेष खर्च दूल्हे की पोषाक पर नहीं होता समय की कहावत है लगावण ने कुंकू जावण में पूंपू। यानी कुमकुम और शंख से पुष्करणा सावा वानी मितव्ययता कहावत है-लगावण ने कुंकू और बजावण में पूंपू

1973 के सामूहिक सावे में ऐसी सादगी से होती थी शादी।

आज विष्णुरूपी दूल्हे के रूप में शादियां हो रही है, ढोल-ताशे बज रहे हैं। रोशनी से घरों को जगमग करने में हजारों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। मगर, इन सबके बीच सदियों से चली आ रही परंपरा विष्णुरूप में दूल्हे का दुल्हन के घर जाना और एक ही दिन समाज के अन्य घरों में शादियां होना है

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