









बीकानेर,उग्र विहारी तपोमूर्ति मुनि श्री कमल कुमार जी स्वामी ने आज चातुर्मास समाप्ति के पश्चात तेरापंथ भवन, गंगाशहर से विहार करके प्रेमसुख जी बोथरा , रांगडी़ चौक बीकानेर पधारे। मुनि श्री ने अपने दो सहवर्ती साधुओं के संग सुबह सुर्योदय के साथ ही बीकानेर के लिए प्रस्थान कर गये। बड़ी तादाद में श्रावक श्राविकाओं की उपस्थिति रही।
इस अवसर पर मुनि श्री कमल कुमार जी स्वामी ने उपस्थित जनमानस को सम्बोधित करते हुए कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को धर्म के लिए हर पल जागरूक रहना चाहिए। धर्म हमारे जीवन ओर व्यवहार में आना चाहिए। केवल हम चातुर्मास में धर्म अराधना करे ओर शेष काल में हम निष्क्रिय बने रहे तो हम अपना महत्वपूर्ण समय बर्बाद कर रहे है। इस चातुर्मास काल में जो आपने धर्म अराधना का क्रम शुरू किया है उसे अनवरत जारी रखे। प्रतिदिन ज्यादा से ज्यादा सामायिक करे। ध्यान स्वाध्याय में जुड़े रहे। उपवास व अन्य बडी़ तपस्या संभव हो तो करने का प्रयास करे।मुनि श्री ने कहा कि हम आश्रव का द्ववार बन्द करे। संवर ओर निर्जरा करने का प्रयत्न जारी रखे जिससे आत्मा एक दिन कर्मो से हल्की बन जायेगी। मुनिश्री बीकानेर से उदासर भी जाएंगे उसके बाद पुनः गंगाशहर तेरापंथ भवन 14 नवम्बर भगवानमहावीर डिक्शस कल्याणक पर पधारेंगे।
मुनिश्री ने सीए की परीक्षा में पास होने वाले विधार्थियो को आशीर्वाद प्रदान किया एवं आगे ओर अधिक विकास करे, ओर अपनी आत्मा के प्रति भी जागरूक रहने की प्रेरणा प्रदान की।
मुनि श्री ने पढाई में आगे बढ़ने में जैन आगमों में उल्लेखित सुत्रों को जनता के सामने रखा।
1. प्रमत्तः या निर्ममः – सावधान या निर्मम (आसक्ति रहित) रहकर अध्ययन करना चाहिए।
व्याख्या: अध्ययन करते समय पूरी तरह सजग और सावधान रहना चाहिए। मन को भटकने नहीं देना चाहिए। साथ ही, अहंकार (मैं पढ़ रहा हूँ, मैं जानता हूँ) को छोड़कर निर्मम भाव से ज्ञानार्जन करना चाहिए।
2. अध्ययन या शिक्षा- नियमित रूप से और बार-बार अभ्यास करके सीखना चाहिए।
व्याख्या: ज्ञान को स्थिर करने के लिए निरंतर अभ्यास और दोहराना आवश्यक है। एक बार पढ़ लेने भर से ज्ञान नहीं आता, उसे अपने जीवन में उतारने के लिए लगातार साधना करनी पड़ती है।
3. अल्पेन या बहुना वा- थोड़ा ही सही, लेकिन नियमित रूप से अध्ययन करना चाहिए।
व्याख्या: यह सोचकर अध्ययन नहीं छोड़ना चाहिए कि आज समय कम है या थोड़ा ही पढ़ पाऊँगा। थोड़ा लेकिन नियमित ज्ञानार्जन, बहुत सारा लेकिन अनियमित अध्ययन से बेहतर है। निरंतरता ही सफलता की कुंजी है।
4. न संपद्यते दुःसहाभावे- आलस्य न करे, क्योंकि यह सहन करना कठिन है (यानी आलस्य दुखदायी है)।
व्याख्या: यह सबसे महत्वपूर्ण सूत्र है। अध्ययन में आलस्य, प्रमाद और टालमटोल नहीं करना चाहिए। आलस्य एक ऐसा दुर्गुण है जो मनुष्य को ज्ञान से वंचित कर देता है और इसकी वजह से होने वाला नुकसान बाद में बहुत दुःखदायी होता है। इसलिए आलस्य का त्याग करके ही ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।
इन सूत्रों के पीछे का दर्शन समझाते हुए मुनिश्री ने कहा कि जैन परंपरा में ज्ञान केवल सूचना संग्रह नहीं, बल्कि आत्मिक विकास का माध्यम है। इन सूत्रों का पालन करने से व्यक्ति की बौद्धिक और आध्यात्मिक यात्रा सार्थक बनती है।
