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बीकानेर,दो दिवसीय विद्वत् विचार गोष्ठी के दूसरे दिन आज परिचर्चा के सत्र में विद्वानों ने अपने ओजस्वी विचारों से उपस्थित श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. मुकेश आर्य विभागाध्यक्ष यूरोलॉजी-पीबीएम हॉस्पिटल ने की। कार्यक्रम का संचालन डॉ. प्रचेतस् ने किया। कार्यक्रम के प्रारंभ में सीए कृतेश पटेल ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि राष्ट्रवाद और वसुधवाद एक दूसरे के प्रेरक हैं विरोधी नहीं, हमें अपनी माता, परिवार अपने देश से प्रेम करना कोई नहीं सिखाता यह नर्संगिक हैं। वर्तमान स्थिति में राष्ट्रवाद ज्यादा प्रासंगिक है या वसुधावाद यह देश, काल, परिस्थिति पर निर्भर करता है। आज से 150 वर्ष पूर्व, 100 वर्ष पूर्व तथा वर्तमान भारत की राजनीतिक स्थिति बदलती रही है। हमें वर्तमान में राजनीति, भाषावाद, क्षेत्रवाद की स्थिति पर विचार करना होगा। यदि हमें विश्व गुरु बना है तो पहले स्वयं को सुदृढ़ एवं समर्थवान बनाना होगा।
गुजरात से पधारे सुरेश भाई चावड़ा ने कहा कि प्रत्येक नागरिक को अपने राष्ट्र की भाषा, संस्कृति, इतिहास को सर्वोपरि रखना चाहिए। महर्षि दयानंद सरस्वती ने 150 पर वर्ष पूर्व कहा था की भारतवंशी वैदिक संस्कृति को मानने वाले हैं, आप दिव्या हैं, आपको इस पर गर्व करना चाहिए। मनुष्य वही है जो अन्यायकरी बलवान से भी ना डरे तथा दुर्बल सत्यवादी से अवश्य डरे।
रेलवे में अभियंता के पद पर कार्य कर चुके व्याकरण एवं दर्शन के ज्ञाता आचार्य शक्ति सूक्त जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि यह एक विस्तृत विषय है, ऋषि दयानंद के शब्दों में उपकार अथवा उन्नति की सीमा को राष्ट्रवाद कहते हैं तथा सीमाएं समाप्त हो जाएं तो यह वसुधावाद कहलाता है। शैक्षिक विषयों में वसुधवाद, वेदों का पढ़ना पढ़ना सब कार्य धर्मानुसार करना, भाषा का ज्ञान होना, सभ्यता संस्कृति का ज्ञान होना है। बयाना से पधारे इंजीनियर, उपदेशक आचार्य रवि शंकर ने बताया कि किसी एक देश को केंद्रित कर बनाई गई योजना राष्ट्रवाद जबकि केंद्रित नहीं कर संपूर्ण विश्व के लिए बनाई गई योजना वसुधावाद के अंतर्गत आती है। वसुधावाद एक पर केंद्रित नहीं किया जा सकता। राष्ट्र नीति एवं विदेश नीति दोनों ही श्रेष्ठ होनी चाहिए तभी हितकारी होती हैं। अपनी ही उन्नति में संतुष्ट न होकर सभी की उन्नति में संतुष्ट होना चाहिए। राष्ट्रवाद तथा वसुधावाद भिन्न होते हुए भी विरोधी नहीं है। संपूर्ण विश्व का विकास ही वसुधवाद है। जब तक एक भाषा, एक मत, एक धर्म नहीं होता तब तक राष्ट्र का विकास नहीं हो सकता। हमने अपने महापुरुषों के चित्र की पूजा की है चरित्र की पूजा नहीं की यही हमारे दुखों का कारण है। वर्तमान परिस्थितियों में भारत प्रगति के पथ पर अग्रसर है। आज हमने अमेरिका को शर्माते, पाकिस्तान को घबराते और भारत को मंद-मंद मुस्कुराते देखा है। आज हमारी रक्षा तभी संभव है जब हम आडंबरों,अंधविश्वास से दूर हो जाएं तभी हमारा भविष्य उज्जवल होगा।
रोजड गुजरात से पधारे मुनि सत्यजीत जी ने अपनी ओजस्वी वाणी में उपस्थित श्रोताओं को संबोधित करते हुए राष्ट्रवाद, वसुधावाद की विवेचना की। आपने जापान, कोरिया, चीन व अमेरिका के राष्ट्रवाद की तुलना की तथा इसके संदर्भ में भारत के राष्ट्रवाद की व्याख्या की। आपने कहा कि वेदों की दृष्टि में तो ईश्वर ने कोई सीमाएं नहीं बनाई उन्होंने संपूर्ण विश्व को सामान संपदा प्रदान की हैं। और हमने इंसान होकर के क्या पाया है हम राष्ट्रवाद की एक अलग स्थिति में जी रहे हैं। व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता परिवार आवश्यक है, परिवार अकेला नहीं रह सकता समाज आवश्यक है, समाज भी अकेला सक्षम नहीं है उसके लिए शहर, राज्य और राष्ट्र आवश्यक है। राष्ट्रवाद के नाम पर कुछ भी करना उचित नहीं वेदों के अनुसार जहां गलत है उसे ठीक किया जाए मात्र राज्य वृद्धि नहीं।
डॉ. ज्वलंत शास्त्री ने वेदों के संदर्भ प्रदान करते हुए राष्ट्रवाद की व्याख्या की। आपने राजा राममोहन राय की भी तुलनात्मक दृष्टि से राष्ट्रवाद की व्याख्या का वर्णन किया। आपने वामपंथ, राष्ट्रवाद, पूंजीवाद एवं समाजवाद के संदर्भ में भी राष्ट्रवाद की व्याख्या की। आपने कहा कि सांप्रदायिकता के खिलाफ जब तक बिगुल नहीं बजाया जाएगा, जातियों के मतभेदों को नहीं मिटाया जाएगा तब तक राष्ट्रवाद की सही व्याख्या संभव नहीं होगी। महर्षि दयानंद ने दलित वर्ग एवं महिलाओं को ऊपर उठने के लिए कार्य किया। कार्यक्रम के अंतिम सत्र में आर्ष न्यास के संस्थापक शिक्षाविद् राम नारायण स्वामी एवं माता कौशल्या देवी को भी उपस्थित दर्शकों एवं गणमान्य व्यक्तियों ने याद किया। कार्यक्रम में पधारे हुए विभिन्न विद्वानों का आयोजन समिति के कार्य कर्ताओं ने सम्मान किया एवं आभार व्यक्त किया।

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