
बीकानेर,गंगाशहर,जैन धर्म की पवित्र प्रथा संथारा, जिसे संलेखना भी कहा जाता है, आत्मा की शुद्धि और मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करने वाली एक गहन आध्यात्मिक साधना है। इस प्रथा का जीवंत उदाहरण हैं तारादेवी बैद, जिन्होंने 76 दिनों तक संथारा के माध्यम से अपनी एकाग्रता, सहनशीलता और विनम्रता से सभी को प्रेरित किया है। आज सुबह मुनिश्री कमलकुमार जी और मुनिश्री श्रेयांसकुमार जी ने तारादेवी को दर्शन दिए। तारादेवी ने विनयपूर्वक वंदना कर सुखसाता पूछी, और मुनिश्री द्वारा पूछे गए प्रश्नों—जैसे अरहंतों और सिद्धों के अक्षर, आसोज सुदि का पर्व, और संथारा का दिन—के सटीक उत्तर देकर अपनी मानसिक स्पष्टता का परिचय दिया। मुनिश्री कमलकुमार जी ने इसे एक आदर्श संथारा बताया, जो समुदाय के लिए प्रेरणा का स्रोत बन रहा है। तारादेवी के दर्शन के लिए परिवार, साधु-साध्वियां और दर्शनार्थियों का तांता लगा हुआ है, जो उनकी इस आध्यात्मिक यात्रा को और सार्थक बना रहा है।
संथारा क्या है?
तेरापंथ महासभा के संरक्षक जैन लूणकरण छाजेड़ के अनुसार, संथारा जैन धर्म की एक पवित्र और गहन प्रक्रिया है, जो आत्मा की शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति के लिए अपनाई जाती है। यह केवल शारीरिक त्याग तक सीमित नहीं है, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर साधक को समता, संयम और विनम्रता का पाठ पढ़ाती है। संथारा, जिसे संलेखना के रूप में भी जाना जाता है, एक स्वैच्छिक और अनुशासित प्रथा है, जो साधक को शारीरिक इच्छाओं पर नियंत्रण, मानसिक शांति और कर्म बंधनों से मुक्ति का अवसर देती है। यह मृत्यु को एक सचेत और पवित्र प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करता है, जो जैन धर्म के अहिंसा, सत्य और संयम के सिद्धांतों पर आधारित है। संथारा कोई साधारण निर्णय नहीं है; इसे गहन विचार, गुरुओं के मार्गदर्शन और समुदाय की सहमति के बाद अपनाया जाता है, विशेष रूप से असाध्य रोग, वृद्धावस्था या आत्मिक उन्नति की इच्छा के संदर्भ में।
हालांकि, आधुनिक संदर्भ में संथारा को कुछ लोग आत्महत्या से जोड़ते हैं, जिसके कारण यह विवाद का विषय रहा है। फिर भी, 2015 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने इसे धार्मिक स्वतंत्रता का हिस्सा माना, बशर्ते यह स्वैच्छिक और असाध्य परिस्थितियों में हो। तारादेवी जैसे साधकों का जीवन इस प्रथा के प्रेरणादायक स्वरूप को दर्शाता है, जो न केवल आत्मिक शुद्धि का मार्ग है, बल्कि समुदाय के लिए भी एक आदर्श प्रस्तुत करता है।
संथारा की प्रक्रिया
संथारा की प्रक्रिया कई चरणों में पूरी होती है, जो साधक को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर तैयार करती है। सबसे पहले, साधक साधु-साध्वियों की उपस्थिति में संथारा का संकल्प लेता है, जिसमें वह भोजन, जल और सांसारिक सुखों का क्रमबद्ध त्याग करने का वचन देता है। प्रारंभ में ठोस भोजन की मात्रा कम की जाती है, फिर तरल पदार्थों का सेवन सीमित होता है, और अंत में साधक पूर्ण रूप से भोजन और जल का त्याग कर देता है। इस दौरान शारीरिक कमजोरी का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन साधक की मानसिक दृढ़ता और आध्यात्मिक एकाग्रता पर विशेष जोर दिया जाता है।
संथारा के दौरान साधक जैन धर्म के सिद्धांतों का कठोरता से पालन करता है। इसमें सुबह-शाम प्रतिक्रमण, नमोकार मंत्र, लोगस्स सूत्र का पाठ और भक्तामर जैसे स्तोत्रों का जप शामिल है। साधक ध्यान और समता के माध्यम से मन को शांत और सांसारिक मोह से मुक्त रखता है। तारादेवी बैद ने 76 दिनों तक संथारा करते हुए प्रतिक्रमण, लोगस्स पाठ और मंत्र जप के साथ अपनी साधना को निरंतर बनाए रखा। उनकी यह साधना, जिसमें उन्होंने परिवार और समुदाय की जिज्ञासाओं का समाधान कर उन्हें प्रेरित किया, एक आदर्श संथारा का उदाहरण है।
सामुदायिक सहयोग और प्रेरणा
संथारा में सामुदायिक सहयोग का विशेष महत्व है। साधक को अकेले नहीं छोड़ा जाता; परिवार, जैन समुदाय और साधु-साध्वियां निरंतर प्रोत्साहन और सेवा प्रदान करते हैं। तारादेवी के संथारा में उनके पति विजय कुमार, पुत्रियां वर्षा और चारू, भाई विनोद चैपड़ा, ललिता चैपड़ा, मासी पुष्पा देवी बाफना, मामा राजू जी चैपड़ा, भानजी ललिता बोथरा, जेठानी सुंदर देवी बैद, जंवाई कमलजी भंसाली सहित अनेक परिजन और दर्शनार्थी उपस्थित रहे। साध्वीश्री विशद प्रज्ञाजी, लब्धियशाजी और अन्य साधु-साध्वियों ने दर्शन, मंगल पाठ और प्रवचनों के माध्यम से तारादेवी का मनोबल बढ़ाया। समुदाय के लोगों ने वैराग्यवर्धक गीतों और सेवा के माध्यम से आध्यात्मिक वातावरण बनाए रखा।
एक आदर्श संथारा
मुनिश्री कमलकुमार जी ने तारादेवी के संथारा को एक आदर्श संथारा बताते हुए कहा कि 76 दिन पूरे होने के बावजूद उनकी एकाग्रता, सहिष्णुता, समता, कर्तव्यपरायणता और विनम्रता सभी के लिए प्रेरणा बन रही है। उन्होंने अपने जीवन में अनेक संथारे देखे, लेकिन इतना लंबा और अनुशासित संथारा प्रथम बार देखा। मुनि नमि कुमार जी ने भी तारादेवी के दृढ़ मनोबल की प्रशंसा की और कामना की कि उनकी आत्मा उत्तरोत्तर निर्मलतम बनती रहे। तारादेवी के नानोसा, ननंद महाराज और सासूजी ने भी संथारा पूर्वक विदाई ली थी, और तारादेवी का यह संथारा उसी का सुफल माना जा रहा है।
संथारा का महत्व
संथारा का महत्व जैन धर्म में आत्मिक उत्थान और मोक्ष के मार्ग के रूप में देखा जाता है। यह साधक को अंतिम समय में कर्म नाश और आत्मिक शुद्धि का अवसर देता है। तारादेवी जैसे साधकों का जीवन दर्शाता है कि कठिन शारीरिक परिस्थितियों में भी समता और एकाग्रता बनाए रखी जा सकती है। यह प्रथा न केवल साधक की आत्मा को निर्मल बनाती है, बल्कि समुदाय के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बनती है। संथारा आत्महत्या नहीं, बल्कि जैन धर्म की एक पवित्र प्रथा है, जो मृत्यु को एक आध्यात्मिक उत्सव के रूप में स्वीकार करती है। तारादेवी की यह यात्रा जैन धर्म के सिद्धांतों और समुदाय की एकता का जीवंत प्रमाण है।