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बीकानेर,जीवन में जहाँ जहाँ भी कदम रखा वहाँ हमेशा निराशा ही मिली। शायद मैं इस लाइक था ही नहीं। फिर भी मन को मार कर उसी राह चलता गया। कभी पिताजी के व्यवसाय में सहयोग किया वहाँ भी जी नहीं लगा। कभी वकालत की वो भी नहीं चली। पत्रकारिता की तो दुश्मनों की तादाद बढ़ी और जनसम्पर्क सेवा की कोई मज़ा नहीं आया और रिटायर्मेंट के बाद फिर पत्रकारिता में लौट आया। फिर भी ना जाने क्यों दिल उदास है। कही भी अपने आपको फिट नहीं कर पाया। ज़रूर मुझमें ही कोई कमी रही होगी। चलिए, बात करते हैं पत्रकारिता की , आप भी देखिए पत्रकारिता के कुछ नमूने। मेरे एक पत्रकार मित्र है उन्होंने बताया कि किसी विभाग में उच्च अफ़सर अपने शहर में बदली पर आये थे। मैं उनका इंटरव्यू लेने गया और अपना विज़िटिंग कार्ड पीए के मार्फ़त अन्दर भिजवाया। पीए ने वापस लोटकर मेरे हाथ में ५०० का नोट थमाते हुए कहा कि अभी अभी वे नये आये है थोड़े दिनों बाद राशि बढ़ा देंगे। मेरे मित्र ने पैसे लोटाते हुए कहा कि उनका ऐसा कोई तात्पर्य नहीं है। आपके अफ़सर का किसी वास्तविक पत्रकार से पाला नहीं पड़ा है। अब आप एक अन्य पत्रकार मित्र की बात सुनिए— मैं अस्वथ्य हूँ वो मेरा हाल पूछने मेरे मेरे निवास पर आये थे। मैंने बताया कि फला डाक्टर का इलाज चल रहा है। पत्रकार महोदय ने कहा- कि वो मेरे घनिष्ठ हैं आपको बिना फ़ीस दिये दिखवा देता हूँ। मैंने कहा कि डाक्टर कभी भी बिना फ़ीस लिए इलाज नहीं कर सकता? उनके सामने सिफ़ारिश, रिश्ते, नाते कोई मायना नहीं रखते। उन्होंने कहा कि मेरे अख़बार से वे मुझसे कुछ भयभीत रहते हैं क्योंकि वो अस्पताल में कम और घर पर ज़ायदा प्रेटिकिस करते है। अब आप तीसरे पत्रकार की बात सुनिए— उनका कहना था कि आरटीओ- सेल्स्टेक्स- रसद- स्वथ्य- पुलिस जैसे मलाईदार महकमों पर उनका दबदबा है। इन विभागों का कोई काम हो हमे बता देवे। पत्रकारों के इन रुवाब ओर दबदबे ने मुझे भी पत्रकार बनने के लिए कुछ तो प्रेरित किया था। वैसे मेरे पत्रकार बनने में अधिक भूमिका कोहिनूर ने निभाई। हुआ यो कि मेरे पिताजी ने एक स्वामियो का भूखंड भवन निर्माण हेतु ख़रीदा। जब ज़मीन की खुदाई हुई तब उसमे कई कंकाल मिले। कमण्डल के साथ एक एक रुपये के सिक्के भी मिले। हमने विधिवत उन्हें वही जमी में गाढ दिया। लेकिन हमारे कोहिनूर साहब को पता चल गया। उन्होंने अपने अख़बार में छापकर लाउड- स्पीकर से यह पब्लिसिटी की कि हमे गढ़ा ख़ज़ाना मिला है सरकार को जाँच कर मकान पर क़ब्ज़ा करना चाहिए। मैंने कोहिनूर को समझाने की बहुत कोशिश की कि यहाँ स्वामियों की बग़ेची थी स्वामियों के मरने पर उन्हें यही गाढ दिया जाता था और उनका कमण्डल एवम् शगुन का रुपया भी उनके साथ डाल दिया जाता था। लेकिन कोहनूर नहीं माना और हिस्से की माँग करने लगा। हम उसे समझाते- समझाते थक गये लेकिन वो हमारे घर के आगे- दुकान के आगे- कॉट्गेट पर लाउड- स्पीकर से बोलते बोलते नहीं थका। जबकि न्यूज़ सरासर गलत थीं और हमे मानसिक पीड़ा पहुँचाने वाली थी। आख़िर जब हम निराश हो गए तब हमने निर्णय लिया कि हम भी अब अख़बार निकालेंगे। फिर क्या था फटाफट प्रकिया पूरी की। नगर दंडनायक के सामने घोषणा- पत्र भर और दिल्ली जाकर आरएनआई से बीकानेर- एक्सप्रेस के नाम का टाइटल लेकर अपने प्रेस के मित्र उत्तम चंद की प्रेस में अख़बार छपवाना शुरू किया। पत्रकार शेखर सक्सेना का इसमें काफ़ी सहयोग रहा। हमने जोश ही जोश में पत्र की हज़ारो प्रतियाँ छपवा कर जगह जगह वितरित की। हर दुकान- हर होटल- हर लाइब्रेरी में बीकानेर एक्सप्रेस नज़र आता। अब कोहिनूर ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया। हमने भी सोचा- लोह को लोहा काटता है अत: अब हमे इस कार्य में जुटना ही है । लेकिन हम भूल गए कि पत्रकारिता एक दुधारू तलवार है। यहाँ झूठ बिकता है सच्च चुप रहता है। जी- हजूरी- ख़ुशामंदी- चाटुकारिता- इसके आभूषण है जिसे दलाली नहीं आती, चमचाई नहीं कर सकता, वह पत्रकार नहीं बन सकता। अब कोई मिशनरी पत्रकारिता की बात ही नहीं करता । लेकिन कुछ अच्छे लोगो का साथ भी मिला। शेखर सक्सेना, शुभू पटवा, मांगीलाल माथुर, महबूब अली डॉ. वी डी आचार्य और भी कई शुभचिंतकों का। कोशिश पूरी की , सत्य की राह पर चलने की , तबसे अब तक संघर्षों के बीच अपने आपको खड़ा पाया है। जलती आग में अपने को खड़ा पाया है । दोस्ती कम दुश्मनी ज़ायदा पाई है । फिर भी चुनौतियाँ स्वीकार करते हुए अपनी जगह पर खड़ा हूँ खड़ा रहूँगा। चाहे क्यों ना बन जाये दुश्मन जमाना? मनोहर चावला

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