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बीकानेर,आपको भी आश्चर्य होता होगा कि भीड़ हैँ किन्तु ये श्रीमान अपने आपको अकेला कैसे महसूस करते हैँ किन्तु यह सत्य हैँ l आश्चर्य मुझे भी होता हैँ किन्तु ज़ब इसके ऊपर चिंतन, मंथन किया तो कुछ कुछ समझ में आया क्योंकि जमाना इक्कीसवीं सदी में चला गया और हम अपने विचारों, संस्कारो क़े तले इतने दबे हुवे हैँ कि अभी उन्नीसवीं सद्दी से बिसवीं सद्दी में भी जाने का प्रयास कर रहे हैँ तो ऐसी स्थिति में जो हम चाहते हैँ वो इक्कीसवीं सद्दी वाले पसंद नही करते और जो वो चाहते हैँ शायद हमें नही पचता कुछ पचाने का प्रयास भी करते हैँ किन्तु कुछ डुप्लीकेट मित्र, मिलने वाले हमारे विचारों, संस्कारो,कर्म की प्रशंसा कर जाने से फिर हम अपने विचारों को और मजबूत बनाने में जुट जाते हैँ किन्तु ज़ब कही भीड़ में जाकर अपने आपको अकेला पाते हैँ तो फिर आश्चर्य होता हैँ कि क्या इस विचारों, संस्कारो को कही हम अकेले ही तो नही ढो रहे हैँ l किन्तु क्या करे हमारे विचार और संस्कारो क़े जोड़ में हम ऐसे फ़स गये तोड़ने से नही टूटते जैसे फेविकोल का मजबूत जोड़ हैँ l

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