बीकानेर,पहले विधानसभा चुनाव,अब लोक सभा चुनाव सरकार की अपनी योजनाये और उपलब्धिया के बड़े बड़े फ़ुल पेज के विज्ञापन अधिकांश बड़े- बड़े समाचार पत्रों में रोज़ाना छपते हुए इन दिनों बराबर जनता देख रही है कि किस प्रकार सरकार योजनाओं की न्यूज़ को भी विज्ञापन बनाकर अपनी लोकप्रियता के लिए कतिपय बड़े पत्रों को सरकार मालामाल कर रही है। यही नहीं इन बड़े पत्रों को और अधिक अमीर बनाने के लिए यूपी, एमपी तक की योजनाओं के विज्ञापन राजस्थान के बडे अखबारो में पहले पेज पर छप रहे हैं। छोटे समाचार पत्रों को एक भी विज्ञापन नहीं दिया गया न ही दिया जाता हैं । जबकि इन छोटे पत्रों ने ही इस सरकार की ज़मीन तैयार की हैं। धरातल बनाया हैं। आज़ादी के आन्दोलन में इनकी महती भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। दरअसल पत्रकारिता का विकास ही नवजागरण आन्दोलन के साथ हुआ था गुणवता, विस्वसनीयता और देश प्रेम इन्होंने ही जगाया था इन्होंने कभी लाभ- हानि को नहीं देखा। आज़ादी का मिशन था उसमे सब कुछ अपना स्वाह किया। जबकि कतिपय बड़े पत्रों ने मिशन छोड़कर लाभ ही लाभ कमाया हैं। ओर सरकार ने उनकी इस कमज़ोरी को देखते हुए विज्ञापनों से इनकी कलम को भी गिरवी रख तक दिया हैं। रोज़ाना चंद बड़े पत्रों में फ़ुल पेज के योजनाओं के विज्ञापन जनता की जेब पर डाका ही तो हैं। और आश्चर्य हैं लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में जाने वाले छोटे समाचार पत्र इन विज्ञापनों से बिलकुल महरूम है। पहले तो सरकार ने इनके वर्गीकृत विज्ञापन बंद कर दिये और फिर तीन सजावटी विज्ञापन-१५ अगस्त-२६ जनवरी और गाँधी जयन्ती पर ज़ो मिला करते थे वो भी बन्द कर दिये। या यू कहे कि डीएवीपी ने पिछले१० वर्षों से एक भी विज्ञापन छोटे पत्रों को नहीं दिया। राजस्थान में गहलोत सरकार ने छोटे पत्रों की कुछ मदद ज़रूर की लेकिन उन्होंने भी ज़ायदा तरजीह बड़े पत्रों को ही दी। अब भी सरकार पूर्णयता बड़े पत्रों के लिए समर्पित हैं। जबकि दस हज़ार से भी ज़ायदा राजस्थान में छोटे और मध्यम क्षेणी के समाचार पत्र निकलते होंगे जिनकी रोटी- रोज़ी पत्रकारिता पर ही निर्भर हैं लेकिन छोटे पत्र सरकार की आँख की किरकरी हैं। ये छोटे पत्र किस प्रकार आर्थिक तंगी से जूझते हुए अपना अख़बार निकाल रहे हैं। ये मुख्यमंत्री जी के अलावा कौन जान सकता हैं ? क्योंकि उन्होंने भी ग़रीबी देखी हैं मध्यम परिवार से वे आये हैं वे भला छोटे पत्रो का दर्द देर- सवेर अवश्य महसूस करेंगे। अब तो छोटे पत्र अपना पत्र निकालने के साथ साथ सोशल मीडिया से भी जुड़ गये हैं। मसलन- टूवीट्रर – फ़ेशबुक- इंस्टाग्राम- वाट्सअप और भी कई वेबसाइट्स से- अपने समाचार पत्र के माध्यम से सरकारी योजनाओं का प्रचार- प्रसार करने में बड़े पत्रों से कई गुना अग्रणीय हैं। जबकि कतिपय बड़े पत्र तो उद्योग ही बनते जा रहे हैं। और अब भी छोटे पत्र मिशनरी पत्रकारिता कर रहे हैं। वो पत्र भी क्या पत्र हैं जो पीड़ितो और वंचितों की आवाज़ ना बने। यह काम बखूबी छोटे पत्र कर रहे है बड़े पत्र तो फ़ुल पेज के रंगीन विज्ञापन वो भी प्रथम पेज पर – सिमट कर रह गये हैं। जबकि छोटे पत्र समाज का आईना बने हुए हैं और समय के अनुरूप चल रहे हैं। अपनी पत्रकारिता का धर्म निभा रहे हैं। वे दिवांगों की लाठी- मूक की वाणी- और नेत्रहीन की ज्योति बनने की कोशिश कर रहें हैं लेकिन आज वे पत्र आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। पत्रकारिता की दृष्टि से बड़े पत्रों में मूल मुद्दे प्राय ओझल हों गये हैं और विज्ञापन सर्वोपरि हो गये हैं। याद आते हैं पत्रकार श्याम आचार्य, जो कहा करते थे कि हम रात तक अपने रिपोर्टर का इंतज़ार करते रहते थे कि वो कोई एक्सक्लूसिव न्यूज़ ले कर आएगा । लेकिन अब इंतज़ार करते हैं की वो कितने विज्ञापन लाएगा । विज्ञापनों ने पत्रकारिता में विचारशीलता का अभाव पैदा कर दिया है । क्योंकि उन्हे सरकार फ़ुल पेज के रंगीन विज्ञापन देकर उनकी सार्थक पत्रकारिता का गल्ला घोंट रही हैं। छोटे पत्र ही हैं जो सार्थक पत्रकारिता का निर्वहन ईमानदारी से भली- भाँति कर रहें हैं। जबकि सरकार उन्हें उपेक्षित किए हुए हैं डर हैं कि ऐसे में कही लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ खोखला ना हो जाये। छोटे छोटे पत्रकार जिससे सब पाने की आशा रखते हैं, जब उनके मान सम्मान, आर्थिक तंगी, शारीरिक सुरक्षा का मुद्दा उठता है तो चुप्पी क्यों ?
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