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बीकानेर, रांगड़ी चौक के बड़ा उपासरा में मंगलवार को यतिश्री अमृत सुन्दरजी ने
भक्तामर स्तोत्र की 17-18, वीं गाथा की व्याख्या करते हुए कहा कि जो अपने हृदय से दृढ़ दृढ़ विश्वास व अनन्य भक्ति से परमात्मा को बिठा लेता है, उसको किसी काल, परिस्थिति का भय नहीं रहता। सर्वगुणों से संपन्न, तीनों लोकों को दैदीप्यमान करने वाले परमात्मा का दिव्य स्वरूप् सूर्य व चन्द्रमा से भी अधिक प्रभावशाली है। चन्द्रमा व सूर्य को ग्रहण प्रभावित कर लेते है, लेकिन दिव्य ज्योति वाले, तीनों लोको को आलौकित करने वाले, महान कांति वाले, सर्व सदगुण संपन्न परमात्मा को कोई गृह प्रभावित नहीं कर सकता।
उन्होंने कहा कि जैन दर्शन में साधना के 14 गुण स्थानकों का वर्णन किया गया है। ज्ञानावर्णीय, दर्शनावर्णीय, मोहनीय व अंतराय कर्म चार घाटी कर्मों के क्षय होने के बाद जीव सयोगी केवली यानि केवल ज्ञान से परमात्म स्वरूप् को प्राप्त करता है। इन्हीं कर्मों का क्षय कर सत्य साधक अपने आत्म व परमात्म स्वरूप् से साक्षात्कार करते हुए मोक्ष के मार्ग पर बढ़ता है।

यति सुमति सुन्दर ने 18 पापों में रति-अरति का वर्णन करते हुए रति मतलब प्रीति, लगाव व प्रेम करना तथा अरति का तात्पर्य नफरत, घृणा, अलगाव करना है। रति-अरिति के पाप को सत्य साधना से समाप्त किया जा सकता है। साधना जड़ों से कार्य करते हुए पाप को नष्ट करती है। यतिनि समकित प्रभा ने भगवान महावीर के आदर्शों का स्मरण दिलाते हुए कहा कि शरीर व आत्मा अलग होने का भेदज्ञान रखने वाले संत इस गुण से आच्छादित रहते है। किसी वेशभूषा में रहने वाला या गृहस्थी,साधक, गुरु भक्त, श्रमण, संत जिसको भेद विज्ञान का विवेक व होश है वह मान,अपमान,निंदा, स्तुति, उपसर्ग, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति प्रभावित नहीं होता। वह हर काल-परिस्थिति में हंसते-मुस्काते हुए आत्म-परमात्म की सत्य साधना में लगा रहता है।

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