बीकानेर,रांगड़ी चौक के बड़ा उपासरा में रविवार को यतिश्री अमृत सुन्दरजी ने भक्तामर स्तोत्र की चौथी व पांचवी गाथा का वर्णन संस्कृत के श्लोकों को सुनाते हुए किया। उन्होंने कहा भक्ति में अमृतमय, शीतल, शांत और उज्जवल कान्ति वाले परमात्मा के अनंत गुणों को आत्म स्वरूप में देखने का दिव्य प्रयास व पुरुषार्थ करें। परमात्मा के सद्गुणों को उत्कृष्ट प्रेम व भक्ति अनन्य भाव से ग्रहण किया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि साधारण भक्त या आम आदमी परमात्मा अनंत गुणों का वर्णन करने में असक्षम रहता है। हिरणी वात्सल्यवश अपने छोटे से बच्चें को सिंह से रक्षा के लिए दुर्बल होते हुए भी मुकाबला करने के लिए डट जाती है। इसी प्रकार भक्तिवश अपनी शक्ति का विचार किए बिना मानतुंगाचार्य की तरह परमात्मा की स्तुति, वंदना के लिए प्रवृत हो जाएं। वात्सल्य, ध्यान व साधना से जीवन में बदलाव लाएं। अपने आराध्य देव के प्रति के श्रेष्ठ भाव रखे।
उन्होंने कि भक्तामर स्तोत्र के रचयिता मानतुंगाचार्य के ऊंचे भक्ति के भाव के बाद भी अनेक परीक्षाओं से गुजरना पड़ा। साधक को परमात्मा की साधना, ध्यान व भक्ति में अनेक कठिनाइयां, परेशानियों का सामना करना पड़ता है। विपरीत, विकट परिस्थितियों में विचलित नहीं होने वाला साधक, परमात्मा के सद्गुणों को ग्रहण करता है। प्रेम, भक्ति में देना होता है, समर्पण करना पड़ता है। समर्पित निश्च्छल प्रेम व उत्कृष्ट भक्ति में शक्ति होती है।
यति सुमति सुन्दरजी 18 पापों में से परिग्रह का वर्णन करते हुए कहा कि सम्पति, समृद्धि, वैभव, सांसारिक भोग विलास के साधनों, सुविधाओं में शांति नहीं है। उन्होंने कहानी के माध्यम से बताया कि अपने आत्म व परमात्म स्वरूप् को पहचाने, जीवन को शुद्ध निर्मल बनाने व सत्य साधना के मार्ग पर चलने से शांति मिलती है। यतिनि समकित प्रभा ने भक्ति गीत के साथ परमात्म भक्ति के महत्व को उजागर किया।