Trending Now












बीकानेर,बार-बार बीते हुए कल की स्मृतियां भीतर के आगोश में विचरण करने लगती है। अतीत के रास्ते सदैव हरी घास पर चलने का सा सुकून देते हैं। वर्तमान को सहेजने की क्रिया में अतीत शामिल होना चाहता है। पिछले दो वर्षों से शिक्षा और विद्यार्थियों के वर्तमान में जिस तरह सन्नाटा पसरा है तपसी मास्टर जी के गुरु भाव की तरफ सीखने, समझने और फिर से अतीत को देखने को मन दौड़ लगा रहा है।

राजतंत्र में शिक्षा का लोकतंत्र कायम करने की हिम्मत जुटाने का काम एक साधारण शिक्षक द्वारा करना जोखिम उठाने से कम नहीं था। एक तरफ स्थानीय राजा का आतंक तथा दूसरी तरफ अंग्रेजी राज का भय बना हुआ था। ऐसे में बीकानेर शहर के नगर पालिकाओं द्वारा संचालित सीई विद्यालय में कार्यरत हेडमास्टर श्री जेठमल जोशी ‘तपसी मास्टर’ द्वारा अपने विद्यालय में घोषित नियम लागू करना स्टाफ को मजबूर करना उन पर लगातार दबाव बनाएं रखना अपनी नौकरी और जिंदगी को खतरे में डालना ही था।
तपसी मास्टर जी की सोच कभी ईंट, चूने और पत्थरों को विकसित करने की नहीं रही। उनका स्पष्ट मानना था कि किसी भी शहर को विकसित करना हो तो वहां के लोगों में मनुष्यता को विकसित करना होगा। इसी सोच के साथ आजादी से पहले १९४० में उन्होंने श्रीगंगानगर में गिरदावर की नौकरी छोडक़र बीकानेर में मास्टरी करने का निश्चय किया। तपसी मास्टर जी का जीवन संघर्षों की गाथा के रूप में बड़ा होता रहा है।
संघर्ष के बावजूद अपने विद्यार्थियों की शिक्षा के साथ कभी समझौता नहीं किया। तपसी मास्टर जी ने कभी औपचारिक-अनौपचारिक प्रशिक्षण मास्टरी का नहीं लिया। उनके द्वारा बनाये गये नियम-कायदे आज भी प्रासंगिक लगते हैं।
स्कूल में आने वाले विद्यार्थियों को मारा-पीटा नहीं जाएगा। इसके लिए स्कूल में कोई डंडा नहीं रखा जाए। खुद युवा समय से ही गेडिया हाथ में रखते थे। एक बार स्कूल आने के बाद किसी भी बच्चे को स्कूल फीस, स्कूल ड्रेस, कॉपी-किताब-स्लेट के लिए स्कूल से बेदखली तो अभिभावक को तगादा तक नहीं हो सकता तथा विद्यार्थी को तो इन समस्याओं की भनक तक नहीं लगनी चाहिए। बच्चों के बाथरूम की व्यवस्था स्कूल में ही होती थी। किसी भी बच्चे को फेल करना मना था। तपसी मास्टर जी की स्पष्ट राय थी कि बच्चों का मानसिक विकास तभी हो सकता है जब उन्हें अभाव का अहसास नहीं हो।
छोटे शहरों के बड़े हेडमास्टर के रूप में पहचान रखते तपसी मास्टर जी जरूरतमंद विद्यार्थियों के लिए स्कूल बैग, कॉपी, किताबों की व्यवस्था अपने स्तर पर किया करते थे। व्यवस्था करने वाले भामाशाह कभी विद्यार्थी के सामने नहीं आते। उनका मानना था कि शिक्षा को अहसानों के नीचे दबाया नहीं जाना चाहिए, इससे बच्चों में हीन भावना आ सकती है। तपसी मास्टर जी का मानना था कि अभावग्रस्त जिंदगी जीने वाले परिवारों में बच्चों की शिक्षा के लिए बजट की व्यवस्था नहीं होती।
शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से कमजोर विद्यार्थियों की सूची बनायी जाती, ऐसे छात्र-छात्राओं को छुट्टी के बाद तपसी मास्टर जी अपने घर साथ ले जाते, जहां सबसे पहले भोजन फिर सभी को गुरुकुल की तर्ज पर पढ़ाया जाता यह क्रम वर्षभर चलता था लेकिन विद्यार्थी बदलते रहते थे।
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान १९१४ में जन्मे तपसी मास्टर जी के ‘तपसी’ नाम की कहानी भी रोमांचित करती है। उनकी मां तुलसी के पेट में तीन वर्ष तक गर्भ ठहरे रहने के कारण मां ने कहा तुमने तीन वर्ष मेरे पेट में तपस्या की है इसलिए तपसी कहलाए, लेकिन मां का प्यार पूरे तीन वर्ष नहीं रह सका। मां चली गई। पीछे-पीछे पिता भी चल बसे। बड़े भाई के स2त अनुशासन में दस वर्ष निकाले। विधि को मंजूर होना होता है वही हुआ। तपसी मास्टर जी की शिक्षा-दीक्षा बीकानेर के अतिरिक्त चुरू में हुई, फिर कुछ समय गोरखपुर में नौकरी करने के बाद श्रीगंगानगर में जमीनों के विभाग में गिरदावर की नौकरी करने लगे। लगभग चार वर्ष के अंतराल में जमीनों का गोरखधंधा पसंद नहीं आया। आता कैसे उनका मन तो बच्चों के दिलो-दिमाग में गोते लगा रहा था। वर्ष १९४० में फिर से बीकानेर आ गये। जीवनपर्यंत के लिए शिक्षक बने रहते हुए डे्रस कोड तय कर लिया। धोती, कुर्ता, माथे पर साफा ओर हाथ में गेडिया, साथ ही किसी भी प्रकार की सवारी का प्रयोग नहीं करना। साइकिल का जमाना था परन्तु तपसी मास्टर जी ने कभी साइकिल चलानी नहीं सीखी, पैदल ही चलते रहे।
बच्चों पर गुस्सा नहीं करने की युक्ति को आदर्श मानने वाले हेडमास्टर जी स्कूल में भी ना तो कभी स्टाफ पर गुस्सा करते और न ही बच्चों पर गुस्सा करने देते।
डीआरडीओ के निदेशक रहे प्रोफेसर हनुमान प्रसाद व्यास अपनी तथा परिवार की प्रगति का श्रेय तपसी मास्टर जी को ही देते हुए कहते हैं कि गुरुजी का धैर्य, विश्वास, निष्ठा और बच्चों के प्रति आत्मिक लगाव के कारण ही हमारे जैसे अनेक परिवारों को कामयाब होने का सुनहरा अवसर मिला। एक विद्यार्थी के रूप में प्रोफेसर व्यास बताते हैं कि वे स्नेह की प्रतिमूर्ति थे, बच्चों से स्नेह में कभी भेदभाव नहीं करते थे जितना प्यार नंदलाल, तिलक, बृजू और बूली को देते उतना ही प्यार हम लोगों को मिलता, शिक्षा को समर्पित किए हुए तपसी मास्टर जी एक आदर्श शिक्षक ही नहीं अपितु छात्र-छात्राओं के अभिभावक थे।
वर्ष १९७१ में सेवानिवृत से पूर्व राज्य सरकार ने उन्हें अच्छे काम के लिए ‘सनद’ अर्पित की थी। सेवानिवृत के बाद भी बिना किसी शुल्क के ७१ वर्ष की उम्र तक बच्चों को पढ़ाते रहे। वर्तमान समय में तपसी मास्टर जी की शिक्षा प्रणाली से प्रेरणा लेने की जरूरत है जब ट्यूशन की बजाय गुरुकुल की तर्ज पर अध्यापक बिना किसी शुल्क लिए कमजोर बच्चों को स्कूल समय के उपरांत अपने घर लाकर अध्ययन करवाए, बिकती शिक्षा की जगह समाज की शिक्षा बनाने में गुरु-शिष्य परम्परा को विकसित करने की महती आवश्यकता है, ऐसे में तपसी मास्टर जी की परम्परा से सीख सकते हैं। कामयाबी और प्रगति मनुष्यता की सीख से संभव है।

Author