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बीकानेर-पर्यटन लेखक संघ-महफिले अदब के साप्ताहिक अदबी कार्यक्रम की 553 वीं कड़ी में रविवार को होटल मरुधर हेरिटेज में आयोजित काव्य गोष्ठी में 1857 की क्रांति के नेतृत्वकर्ता अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र को याद किया गया।

काव्य गोष्ठी का आग़ाज़ डॉ ज़िया उल हसन क़ादरी ने ज़फ़र की मशहूर ग़ज़ल सुना कर किया-
कितना है बदनसीब “ज़फ़र” दफ़्न के लिए
दो ग़ज़ ज़मीन भी ना मिली कूए यार में
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए शिक्षाविद प्रो नरसिंह बिनानी ने अपनी रचना सुना कर दाद हासिल की-
जिन्दगी मे लोग कैसे बदलते है
चन्द कागज के टुकडो ने बता दिया
मुख्य अतिथि ज़ाकिर अदीब ने बहादुरशाह ज़फ़र की याद में नज़्म सुना कर खिराजे अकीदत पेश किया-
तेरे किरदार पे सौ जान से कुरबां आख़िर
क्यों न हो अज़्मते-किरदार बहादुर शाह ज़फ़र
डॉ ज़िया उल हसन क़ादरी ने सिगरेट रदीफ़ से ग़ज़ल सुना कर दाद लूटी-
आज फिर याद आई है सिगरेट
इसलिए तो जलाई है सिगरेट
उर्दू अकादमी सदस्य असद अली असद ने नात शरीफ पेश की।इम्दादुल्लाह बासित ने “क्यूँ हमेशा ग़मज़दा रहता है यूं ही बेसबब”, अमित गोस्वामी ने “मैं इक उम्मीद पे कुछ पल रुका भी था लेकिन”, रहमान बादशाह तन्हा ने “तू जाएगा इक दिन लिपटकर कफ़न में “,महबूब देशनोकवी ने “झूट बोल कर खूब कमाता है आदमी” और हनुवंत गौड़ नज़ीर ने “ज़िंदादिली से भूख का ताल्लुक नहीं हुज़ूर ” सुना कर प्रोग्राम को रौनक़ बख़्शी।

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